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आदित्य ह्रदय स्तोत्र

 ( आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ करने से पहले एक बार निम्नलिखित विनियोग और न्यास आदि का पाठ किया जाए तो अच्छा रहता है लेकिन इसे करना अति आवश्यक नहीं है ।  )

 

विनियोग
 

ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः, आदित्येहृदयभूतो
भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।

ऋष्यादिन्यास

ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे। आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि।
ॐ बीजाय नमः, गुह्यो। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो। ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ।

करन्यास
 

ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवरवते अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादि अंगन्यास

ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।
ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।
इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
 
( इस प्रकार से विनियोग आदि का पाठ करने के बाद निम्नलिखित स्तोत्र का पाठ करना चाहिए )



ततो युद्धपरिश्रान्तम् समरे चिन्तया स्थितम । रावणम् चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम ॥ 1
दैवतैश्च समागम्य दृष्टुमभ्यागतो रणम । उपागम्या ब्रवीद्राम-मगस्तयो भगवान् ऋषिः ॥ 2 
 

उधर श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिंता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे । 

इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया ।

 यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले ।

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यम सनातनम । येन सर्वानरीन वत्स समरे विजयिष्यसि ॥ 3 
आदित्यहृदयम् पुण्यम सर्वशत्रु-विनाशनम । जयावहम् जपेन्नित्य-मक्षय्यम परमम् शिवम् ॥ 4 
सर्वमंगल-मांगलयम सर्वपाप प्रणाशनम् । चिंताशोक-प्रशमन-मायुरवर्धन-मुत्तमम् ॥ 5 
 
सबके ह्रदय में रमन करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो ! वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे । इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है 'आदित्यहृदय' । यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है । इसके जप से सदा विजय कि प्राप्ति होती है । यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है । सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है । इससे सब पापों का नाश हो जाता है । यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु का बढ़ाने वाला उत्तम साधन है ।

रश्मिमन्तम समुद्यन्तम देवासुर-नमस्कृतम् । पूजयस्व विवस्वन्तम भास्करम् भुवनेश्वरम् ॥ 6 
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मि-भावनः । एष देवासुरगणान् लोकान पाति गभस्तिभिः ॥ 7 
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः । महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपामपतिः ॥ 8 
पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः । वायुर्वहनी: प्रजाप्राण ऋतु कर्ता प्रभाकरः ॥ 9 
 
भगवान् सूर्य अपनी अनंत किरणों से सुशोभित हैं । ये नित्य उदय होने वाले, देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान नाम से प्रसिद्द, प्रभा का विस्तार करने वाले और संसार के स्वामी हैं । तुम इनका रश्मिमंते नमः, समुद्यन्ते नमः, देवासुरनमस्कृताये नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराये नमः इन मन्त्रों के द्वारा पूजन करो।संपूर्ण देवता इन्ही के स्वरुप हैं । ये तेज़ की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं । ये अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित समस्त लोकों का पालन करने वाले हैं ।
ये ही ब्रह्मा, विष्णु शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर , वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रकाश के पुंज हैं ।
 
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान । सुवर्णसदृशो भानुर-हिरण्यरेता दिवाकरः ॥ 10 
हरिदश्वः सहस्रार्चि: सप्तसप्ति-मरीचिमान । तिमिरोन्मन्थन: शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान ॥ 11 
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः । अग्निगर्भोsदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशान: ॥ 12 
व्योम नाथस्तमोभेदी ऋग्य जुस्सामपारगः । धनवृष्टिरपाम मित्रो विंध्यवीथिप्लवंगम: ॥ 13 
आतपी मंडली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः । कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद्भव: ॥ 14 
नक्षत्रग्रहताराणा-मधिपो विश्वभावनः । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोस्तुते ॥ 15 
 
इनके नाम हैं आदित्य(अदितिपुत्र), सविता(जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य(सर्वव्यापक), खग, पूषा(पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश्य, भानु(प्रकाशक), हिरण्यरेता(ब्रह्मांड कि उत्पत्ति के बीज), दिवाकर(रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व, सहस्रार्चि(हज़ारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति(सात घोड़ों वाले), मरीचिमान(किरणों से सुशोभित), तिमिरोमंथन(अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू, त्वष्टा, मार्तण्डक(ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान, हिरण्यगर्भ(ब्रह्मा), शिशिर(स्वभाव से ही सुख प्रदान करने वाले), तपन(गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर, रवि, अग्निगर्भ(अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख, शिशिरनाशन(शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ(आकाश के स्वामी), तमभेदी, ऋग, यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विंध्यवीथिप्लवंगम (आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले), आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल(भूरे रंग वाले), सर्वतापन(सबको ताप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन(जगत कि रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी और द्वादशात्मा हैं। इन सभी नामो से प्रसिद्द सूर्यदेव ! आपको नमस्कार है ।
 
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रए नमः । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ।। 16 
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाए नमो नमः । नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥ 17 
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः । नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमो नमः ॥ 18 
ब्रह्मेशानाच्युतेषाय सूर्यायादित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥ 19
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषाम् पतये नमः ॥ 20 
 
पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरी अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है । ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है ।आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं । आपको बारबार नमस्कार है । सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य ! आपको बारम्बार प्रणाम है । आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से भी प्रसिद्द हैं, आपको नमस्कार है ।उग्र, वीर, और सारंग सूर्यदेव को नमस्कार है । कमलों को विकसित करने वाले प्रचंड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है । 
आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी है । सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमंडल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरुप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है । आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं । आपका स्वरुप अप्रमेय है । आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, संपूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ।

तप्तचामिकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे । नमस्तमोsभिनिघ्नाये रुचये लोकसाक्षिणे ॥ 21 
नाशयत्येष वै भूतम तदेव सृजति प्रभुः । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥ 22 
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः । एष एवाग्निहोत्रम् च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम ॥ 23 
वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनाम फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः ॥  24 

आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरी और विश्वकर्मा हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है ।रघुनन्दन ! ये भगवान् सूर्य ही संपूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं । ये अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं ।  
ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से  स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं । ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं । देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं । संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं ।  

|| फलश्रुति||
 (फलश्रुति का भी पाठ करना होता है | )
 
एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥  25 
पूज्यस्वैन-मेकाग्रे देवदेवम जगत्पतिम । एतत त्रिगुणितम् जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥ 26 
अस्मिन क्षणे महाबाहो रावणम् तवं वधिष्यसि । एवमुक्त्वा तदाsगस्त्यो जगाम च यथागतम् ॥ 27 
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोsभवत्तदा । धारयामास सुप्रितो राघवः प्रयतात्मवान ॥  28
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परम हर्षमवाप्तवान् । त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान ॥  29 
रावणम प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत । सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोsभवत् ॥  30 
अथ रवि-रवद-न्निरिक्ष्य रामम | मुदितमनाः परमम् प्रहृष्यमाण: । 
निशिचरपति-संक्षयम् विदित्वा सुरगण-मध्यगतो वचस्त्वरेति ॥  31 

राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता । इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर कि पूजा करो । इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे । महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे । यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे वैसे ही चले गए । उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया । उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य की और देखते हुए इसका तीन बार जप किया । इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की और देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढे । उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया । उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की और देखा और निशाचरराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा - 'रघुनन्दन ! अब जल्दी करो' । इस प्रकार भगवान् सूर्य कि प्रशंसा में कहा गया और वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में वर्णित यह आदित्य हृदयम मंत्र संपन्न होता है

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