3. त्रिपुर सुंदरी :
षोडशी माहेश्वरी शक्ति की विग्रह वाली शक्ति है। इनकी चार भुजा और तीन नेत्र हैं। इसे ललिता, राज राजेश्वरी और त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है। इनमें षोडश कलाएं पूर्ण है इसलिए षोडशी भी कहा जाता है। भारतीय राज्य त्रिपुरा में स्थित त्रिपुर सुंदरी का शक्तिपीठ है माना जाता है कि यहां माता के धारण किए हुए वस्त्र गिरे थे। त्रिपुर सुंदरी शक्तिपीठ भारतवर्ष के अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक है।
दक्षिणी-त्रिपुरा उदयपुर शहर से तीन किलोमीटर दूर, राधा किशोर ग्राम में राज-राजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी का भव्य मंदिर स्थित है, जो उदयपुर शहर के दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है। यहां सती के दक्षिण 'पाद' का निपात हुआ था। यहां की शक्ति त्रिपुर सुंदरी तथा शिव त्रिपुरेश हैं। इस पीठ स्थान को 'कूर्भपीठ' भी कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां हैं, जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
त्रिपुर सुंदरी माता का मंत्र :
'ऐ ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम:'
रूद्राक्ष माला से
मंत्र (दस माला)
का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।
३
– महात्रिपुरसुंदरी
भगवती
षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रहवाली सिद्ध देवी है । महाविद्याओ
में इनका तीसरा स्थान है । सोलह अक्षरों के मंत्रवाली इन देवी की अंगकान्ति
उदीयमान सूर्यमंडल की आभा की भाँति है । इनकी चार भुजाएँ एवं तीन नेत्र है । ये
शांतमुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन है । इनके चारो हाथों
में क्रमशः पाश, अंकुश,
धनुष और बाण सुशोभित है । वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर भगवती का श्रीविग्रह
सौम्य और हृदय दया से आपूरित है । जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते है, उनमे और ईश्वर
में कोई भेद नहीं रह जाता है । वस्तुतः इनकी महिमा अवर्णनीय है । संसार के समस्त
मन्त्र-तन्त्र इनकी आराधना करते है । वेद भी इनका वर्णन करने में असमर्थ है ।
भक्तो को ये प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती है, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है ।
प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव है और
उन्ही की शक्ति षोडशी है । तंत्र शास्त्रों में षोडशी देवी को पंचवक्त्र अर्थात
पांच मुखवाली बताया गया है । चारो दिशाओ में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से
इन्हें पंचवक्त्रा कहा जाता है । देवी के पांचो मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव
अघोर और ईशान शिव के पांचो रूपों के प्रतीक है । पाँचो दिशाओ के रंग क्रमशः हरित,
रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी उन्ही रंगों के है । देवी में दस हांथो
में क्रमशः अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश,
घंटा, नाग और अग्नि है । इनमे षोडश कलाएँ पूर्णरूप से विकसित है, अतैव ये षोडशी
कहलाती है ।
षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है ।
इनके ललिता, राज-राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापंचदशी आदि अनेक नाम है ।
इन्हें आद्याशक्ति माना जाता है । अन्य विद्याएँ भोग या मोक्ष में से एक ही देती
है । और त्रिपुरसुन्दरी ये अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती है ।
इनके स्थूल, सूक्ष्म, पर और तुरीय चार रूप है ।
एक
बार पराम्बा पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा – ‘भगवन! आपके द्वारा प्रकाशित
तंत्रशास्त्र की साधना से जीवके आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो
जायेंगे किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुःख की निवृत्ति तो इसमें नहीं होगी । कृपा
करके इस दुःख से निवृत्ति और मोक्षपद की प्राप्ति का कोई उपाय बताइये’ । परम
कल्याणमयी पराम्बा के अनुरोध पर भगवान शंकर ने षोडशी श्रीविद्या-साधना-प्रणाली को
प्रकट किया । भगवान शंकराचार्य ने भी श्रीविद्या के रूप में इन्ही षोडशी देवी की
उपासना की थी । इसीलिए आज भी सभी शांकरपीठो में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी
की श्री यंत्र के रुप में आराधना चली आ रही है । भगवान शंकराचार्य ने सौन्दर्यलहरी
में षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि ‘अमृत के समुद्र में से एक
मणिका द्वीप है, जिसमे कल्पवृक्षो की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे है; उस वन
में चिंतामणि से निर्मितमहल में ब्रह्ममय सिंहासन है, जिसमे पंचकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र और
ईश्वर आसन के पाये है और सदाशिव फलक है । सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल पर
विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते है, वे धन्य है । भगवती के
प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते है’ । भैरवयामल तथा
शक्तिलहरी में इनकी उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है । ऋषि दुर्वासा इनके
परमाराधक थे । इनकी उपासना श्री चक्र में होती है ।