।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
ग्यारहवां अध्याय
"भगवान शिव की गंगावतरण तीर्थ में तपस्या"
ब्रह्माजी बोले ;– नारद! गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती, जो साक्षात जगदंबा का अवतार थीं, जब आठ वर्ष की हो गईं तब भगवान शिव को उनके जन्म का समाचार मिला। तब उस अद्भुत बालिका को हृदय में रखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपने मन को एकाग्र कर तपस्या करने के विषय में सोचा। तत्पश्चात नंदी एवं कुछ और गणों को साथ लेकर महादेव जी हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर गंगोत्री नामक तीर्थ पर चले गए। इसी स्थान पर पतित पावनी गंगा ब्रह्मलोक से गिर रही हैं। भगवान शिव ने उसी स्थान को तपस्या करने के लिए चुना। शिवजी अपने मन को एकाग्रचित्त कर आत्मभूत, ज्ञानमयी, नित्य ज्योतिर्मय चिदानंद स्वरूप परम ब्रह्म परमात्मा का चिंतन करने लगे। अपने स्वामी को ध् में मग्न पाकर नंदी एवं अन्य शिवगण भी समाधि लगाकर बैठ गए। कुछ गण शिवजी की सेवा करते तथा कुछ उस स्थान की सुरक्षा हेतु कार्य करते ।
जब गिरिराज हिमालय को शिवजी के आगमन का यह शुभ समाचार प्राप्त हुआ तब वे प्रेमपूर्वक मन में आदर का भाव लिए अपने सेवकों सहित उस स्थान पर आए जहां वे तपस्या कर रहे थे। हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर रुद्रदेव को प्रणाम किया। तत्पश्चात उनकी भक्तिभाव से पूजा-आराधना करने लगे। हाथ जोड़कर हिमालय बोले- भगवन्! आप यहां पधारे, यह मेरा सौभाग्य है। प्रभु! आप भक्तवत्सल हैं। आज आपके साक्षात दर्शन पाकर मेरा जन्म सफल हो गया है। आप मुझे अपना सेवक समझें और मुझे अपनी सेवा करने की आज्ञा प्रदान करें। हे प्रभो। आपकी सेवा करके मेरा मन अत्यधिक आनंद का अनुभव करेगा।
गिरिराज हिमालय के वचन सुनकर महादेव जी ने अपनी आंखें खोलीं और वहां हिमालय और उनके सेवकों को खड़े देखा।
उन्हें देखकर महादेव जी मुस्कुराते हुए बोले ;- हे गिरिराज! मैं तुम्हारे शिखर पर एकांत में तपस्या करने के लिए आया हूं। हिमालय तुम तपस्या के धाम हो, देवताओ, मुनियों और राक्षसों को भी तुम आश्रय प्रदान करते हो। गंगा, जो कि सबके पापों को धो देती है, तुम्हारे ऊपर से होकर ही निकलती है। इसलिए तुम सदा के लिए पवित्र हो गए हो। मैं इस परम पावन स्थल, जो कि गंगा का उद्गम स्थल है, पर तपस्या करने के लिए आया हूं। मैं यह चाहता हूं कि मेरी तपस्या बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरी हो जाए । इसलिए तुम ऐसी व्यवस्था करो कि कोई भी मेरे निकट न आ सके। अब तुम अपने घर जाओ और इसका उचित प्रबंध करो।
ऐसा कहकर भगवान शिव चुप हो गए।
तब हिमालय बोले ;- हे परमेश्वर! आप मेरे निवास के क्षेत्र में पधारे, यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। मैं आपका स्वागत करता हूं। भगवन् अनेकों मनुष्य आपकी अनन्य भाव से तपस्या और प्रार्थना करने पर भी आपके दर्शनों के लिए तरसते हैं। ऐसे महादेव ने मुझ दीन को अपने अमृत दर्शनों से कृतार्थ किया है। भगवन्, आप यहां पर तपस्या के लिए पधारे हैं। इससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। आज मैं स्वयं को देवराज इंद्र से भी अधिक भाग्यशाली मानता हूं। आप यहां बिना किसी विघ्न-बाधा के एकाग्रचित्त हो तपस्या कर सकते हैं। यहां आपको किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी, ऐसा मैं आपको विश्वास दिलाता हूं।
ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय अपने घर लौट गए। घर पहुंचकर उन्होंने अपनी पत्नी मैना को शिवजी से हुई सारी बातों का वृत्तांत कह सुनाया। तब उन्होंने अपने सेवकों को बुलाया और समझाते हुए कहने लगे कि आज से कोई भी गंगावतरण अर्थात गंगोत्री नामक स्थान पर नहीं जाएगा। वहां जाने वाले को मैं दंड दूंगा। इस प्रकार हिमालय ने अपने गणों को शिवजी की तपस्या के स्थान पर न जाने का आदेश दे दिया।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
बारहवां अध्याय
"पार्वती को सेवा में रखने के लिए हिमालय का शिव को मनाना"
ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनि नारद! तत्पश्चात हिमालय अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर शिवजी के पास गए। वहां जाकर उन्होंने योग साधना में डूबे त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया तथा इस प्रकार प्रार्थना करने लगे- भगवन्, मेरी पुत्री पार्वती आपकी सेवा करने की बहुत उत्सुक है। इसलिए आपकी आराधना करने के लिए मैं इसे अपने साथ यहां लाया हूं। हे प्रभु! यह अपनी दो सखियों के साथ आपकी सेवा में रहेगी। आप मुझ पर कृपा करके इसे अपनी सेवा का अवसर प्रदान करिए। तब भगवान शिव ने उस परम सुंदरी हिमालय कन्या पार्वती को देखकर अपनी आखें बंद कर लीं और पुनः परमब्रह्म के स्वरूप का ध्यान करने में निमग्न हो गए। उस समय सर्वेश्वर एवं सर्वव्यापी शिवजी तपस्या करने लगे। यह देखकर हिमालय इस सोच में डूब गए कि भगवान शंकर उनकी तपस्या स्वीकार करेंगे या नहीं?
तब एक बार पुनः हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया और बोले – हे देवाधिदेव महादेव! हे भोलेनाथ! शिवशंकर ! मैं दोनों हाथ जोड़े आपकी शरण में आया हूं। कृपया आंखें खोलकर मेरी ओर देखिए भगवन्! आप सभी विपत्तियों को दूर करते हैं। हे भक्तवत्सल ! मैं रोज अपनी पुत्री के साथ आपके दर्शनों के लिए यहां आऊंगा। कृपया मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए
हिमालय के वचनों को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपने नेत्र खोल दिए और बोले—हे गिरिराज हिमालय ! आप अपनी कन्या को घर पर ही छोड़कर मेरे दर्शनों को आ सकते हैं, नहीं तो आपको मेरा भी दर्शन नहीं होगा। महेश्वर की ऐसी बात सुनकर हिमालय ने अपना मस्तक झुका दिया और शिवजी से बोले - हे प्रभु! हे महादेव जी! कृपया यह बताइए कि मैं अपनी पुत्री के साथ आपके दर्शनों के लिए क्यों नहीं आ सकता? क्या मेरी पुत्री आपकी सेवा के योग्य नहीं है? फिर इसे न लेकर आने का कारण मुझे समझ में नहीं आता
हिमालय की बात सुनकर शिवजी हंसने लगे और बोले ;- हे गिरिराज! आपकी पुत्री सुंदर, चंद्रमुखी और अनेक शुभ लक्षणों से संपन्न है। इसलिए आपको इसे मेरे पास नहीं लाना चाहिए क्योंकि विद्वानों ने नारी को माया रूपिणी कहा है। युवतियां ही तपस्वियों की तपस्या में विघ्न डालती हैं। मैं योगी हूं। सदैव तपस्या में लीन रहता हूं और माया-मोह से दूर रहता हूं। इसलिए मुझे स्त्री से दूर ही रहना चाहिए । हे हिमालय आप धर्म के ज्ञानी और वेदों की रीतियां जानते हैं। स्त्री की निकटता से मन में विषय वासना उत्पन्न हो जाती है और वैराग्य नष्ट हो जाता है जिससे तपस्वी और योगी का ध्यान नष्ट हो जाता है। इसलिए तपस्वी को स्त्रियों का साथ नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार कहकर भगवान शिव चुप हो गए हिमालय शिवजी के ऐसे वचनों को सुनकर चकित और व्याकुल हो गए। उन्हें चुप देखकर पार्वती देवी असमंजस में पड़ गईं।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
तेरहवां अध्याय
"पार्वती-शिव का दार्शनिक संवाद"
भगवान शंकर के वचन सुनकर पार्वती जी बोलीं ;- योगीराज ! आपने जो कुछ भी मेरे पिताश्री गिरिराज हिमालय से कहा उसका उत्तर मैं देती हूं। अंतर्यामी । आपने महान तप करने का निश्चय किया है। ऐसा करने का निश्चय आपने शक्ति के कारण ही लिया है। सभी कर्मों को करने की यह शक्ति ही प्रकृति है। प्रकृति ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार करती है। प्रभु! आप थोड़ा विचार करें, प्रकृति क्या है? और आप कौन हैं? यदि प्रकृति न हो तो शरीर तथा स्वरूप किस प्रकार हों? आप सदा प्राणियों के लिए वंदनीय और चिंतनीय हैं। यह सब प्रकृति के ही कारण है।
पार्वती जी के वचनों को सुनकर उत्तम लीला करने वाले भगवान शिव हंसते हुए बोले- मैं अपने कठोर तप द्वारा प्रकृति का नाश कर चुका हूं। अब मैं तत्व रूप में स्थित हूं। साधु पुरुषों को प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिए। भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को सुनकर
पार्वती हंसती हुई बोलीं ;- हे करुणानिधान! कल्याणकारी योगीराज ! आपने जो कहा, क्या वह प्रकृति नहीं है, तो फिर आप उससे अलग कैसे हो सकते हैं? बोलना या कुछ भी करना अर्थात हमारे द्वारा किया गया हर क्रियाकलाप ही प्रकृति है। हम सदा ही प्रकृति के ही वश में हैं। यदि आप प्रकृति से अलग हैं तो न आपको बोलना चाहिए और न ही कुछ और करना चाहिए क्योंकि ये कार्य तो प्रकृति के हैं अर्थात प्राकृत हैं। भगवन्! आप हंसते, सुनते, खाते देखते और करते हैं वह सब भी तो प्रकृति का ही कार्य है। इसलिए व्यर्थ के वाद-विवाद से कोई लाभ नहीं है। यदि आप वाकई प्रकृति से अलग हैं तो इस समय यहां तपस्या क्यों कर रहे हैं? सच तो यह है कि आप प्रकृति के वश में हैं और इस समय अपने स्वरूप को खोजने के लिए ही तपस्या में लीन रहना चाहते हैं। योगीराज ! आप किस प्रकार की बात कर रहे हैं, थोड़ा विचार कर कहें। यदि आपने प्रकृति का नाश कर डाला है तो आप किस प्रकार विद्यमान रहेंगे, क्योंकि संसार तो सदा से ही प्रकृति से बंधा हुआ है। क्या आप प्रकृति का यह तत्व नहीं जान रहे हैं कि मैं ही प्रकृति हूं। आप पुरुष हैं। यह पूर्णतया सच है । मेरे ही कारण आप सगुण और साकार माने जाते हैं। भगवन्, आप जितेंद्रिय होने पर भी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करते हैं। हे महादेव! यदि आप यही मानते हैं कि आप प्रकृति से अलग हैं तो आपको मेरी किसी भी सेवा से और किसी भी प्रकार से डरना नहीं चाहिए।
पार्वती के मुख से निकले सांख्य-शास्त्र में डूबे हुए वचन सुनकर भगवान शिव निरुत्तर हो गए। तब उन्होंने पार्वती जी को अपने दर्शन और सेवा करने की आज्ञा प्रसन्नतापूर्वक प्रदान कर दी। तत्पश्चात भगवान शिव पर्वतराज हिमालय से बोले - हे गिरिराज हिमालय! मैं तुम्हारे इस शिखर पर तपस्या करना चाहता हूं। कृपया मुझे इसकी आज्ञा प्रदान करें । देवाधिदेव भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को सुनकर गिरिराज हिमालय दोनों हाथ जोड़कर बोले - हे महादेव! यह पूरा संसार आपका ही है। सभी देवता, असुर और मनुष्य सदैव आपका ही पूजन और चिंतन करते हैं। मैं आपके सामने एक तुच्छ मनुष्य हूं, भला मैं आपको किस प्रकार आज्ञा दे सकता हूं? प्रभु! यह आपकी इच्छा है, आप जब तक यहां निवास करना चाहें, कर सकते हैं। गिरिराज के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव मुस्कुराने लगे और आदरपूर्वक हिमालय से बोले- अब आप जाइए। अब हमारी तप करने की इच्छा है। तुम्हारी कन्या नित्य आकर मेरे दर्शन कर सकती है और मेरी सेवा करने की भी मैं उसे आज्ञा देता हूं।
लोक कल्याणकारी भगवान शिव के इन उत्तम वचनों को सुनकर हिमालय और पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नमस्कार किया और अपने घर लौट गए। उसी दिन से पार्वती जी प्रतिदिन भगवान शिव के दर्शनों के लिए वहां आतीं। उस समय उनके साथ उनकी दो सखियां भी वहां जातीं और भक्तिपूर्वक शिवजी की सेवा करती । वे महादेव के चरणों को धोकर उस चरणामृत को पीती थीं। तत्पश्चात उनके चरणों को पोंछतीं। फिर उनका षोडशोपचार अर्थात सोलह उपचारों से विधिवत पूजन करने के पश्चात अपने घर वापस लौट आतीं। इस प्रकार प्रतिदिन शिवजी का पूजन करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया। कभी- कभी पार्वतीजी अपनी सखियों के साथ वहां भक्तिपूर्वक उनके भजनों को भी गाती थीं। एक दिन सदाशिव ने पार्वती जी को इस प्रकार अपनी सेवा में तत्पर देखकर विचार किया कि जब इनके हृदय में उपजे अभिमान के बीज के अंकुर का नाश हो जाएगा, तभी मैं इनका पाणिग्रहण करूंगा।
ऐसा सोचकर लीलाधारी भगवान शिव पुनः ध्यान में मग्न हो गए। तब उनका मन चिंतामुक्त हो गया। तब देवी पार्वती भगवान शिव के रूप का चिंतन करती हुई भक्तिभाव से उनकी सेवा करती रहतीं। भगवान शंकर भी शुद्ध भाव से पार्वती को प्रतिदिन दर्शन देते थे।
इसी बीच इंद्र और अन्य देवता व मुनि ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी की आज्ञा से कामदेव हिमालय पर्वत पर गए। सभी देवताओं के कार्य की सिद्धि हेतु काम की प्रेरणा से वे पार्वती - शिव का संयोग कराना चाहते थे। इसका कारण यह था कि महापराक्रमी तारकासुर ने ऋषि-मुनियों और देवताओं की नाक में दम कर रखा था। उसका वध करने के लिए उन्हें भगवान शिव जैसे महापराक्रमी और बलवान पुत्र की आवश्यकता थी ।
कामदेव ने हिमालय के शिखर पर पहुंचकर अनेक यत्न किए परंतु भगवान शिव काम की माया से मोहित न हो सके। उन्होंने क्रोध से कामदेव को भस्म कर दिया। अब शक्ति में ही सामर्थ्य थी कि शिव को मोहित कर वे देवताओं की इच्छा को साकार करतीं। इसीलिए काम के अनंग होने के बाद जनकल्याण के लिए तथा अपने व्रत को पूरा करने के लिए पार्वती ने मन ही मन शिवजी को पति रूप में पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। कठोर तपस्या करके देवी पार्वती ने शिवजी के हृदय को जीत लिया। तब वे दोनों अत्यंत प्रेम से प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे और उन्होंने देवताओं के महान कार्य को सिद्ध किया।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
चौदहवां अध्याय
"वज्रांग का जन्म एवं पुत्र प्राप्ति का वर मांगना"
नारद जी कहने लगे ;- ब्रह्माजी! तारकासुर कौन था? जिसने देवताओं को भी पीड़ित किया। उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया और स्वर्ग पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। कृपया मुझे इसके विषय में बताइए ।
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनि नारद! मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि थे। उनकी तेरह स्त्रियां थीं, जिसमें सबसे बड़ी दिति थीं। उससे हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष को श्रीहरि विष्णु ने वाराह तथा नृसिंह का रूप धारण करके मार दिया था। तब अपने पुत्रों के मर जाने से दुखी होकर दिति ने कश्यप से प्रार्थना की तथा उनकी बहुत सेवा की। उनकी कृपा से दिति पुनः गर्भवती हुई। जब इंद्र को इस बात का पता • चला तो उन्होंने दिति के गर्भ में ही उनके बच्चे के छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए परंतु दिति के व्रत एवं अन्य भक्तिभाव से बालक को मारने में वे सफल न हुए। समय पूरा होने पर उसके गर्भ से उनचास बालक उत्पन्न हुए। ये सभी भगवान शिव के गण हुए तथा शीघ्र ही स्वर्ग में चले गए। तत्पश्चात दिति पुनः अपने पति कश्यप मुनि के पास गई और उनसे पुनः मां बनने के विषय में कहने लगीं। तब कश्यप मुनि ने कहा- हे प्रिय दिति! अपना तन-मन शुद्ध कर भक्ति भाव से तपस्या करो। दस हजार वर्ष बीतने के पश्चात तुम्हें तुम्हारी इच्छा के अनुरूप पुत्र की प्राप्ति होगी। यह सुनकर दिति ने श्रद्धापूर्वक दस हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की। तपस्या के उपरांत पुनः वे अपने घर लौट आईं। तब कश्यप मुनि की कृपा से दिति गर्भवती हुई। इस बार उन्होंने एक अत्यंत पराक्रमी और बलवान पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का नाम वज्रांग था । वज्रांग दिति की इच्छा के अनुरूप ही था। दिति इंद्र द्वारा किए गए छल-कपट से बहुत दुखी थी और उनसे बदला लेने के लिए अपने पुत्र वज्रांग को देवताओं से युद्ध करने की आज्ञा दी।
वज्रांग और सभी देवताओं का बहुत भयानक युद्ध हुआ। तत्पश्चात वीर और पराक्रमी वज्रांग ने अपनी माता के आशीर्वाद से सभी देवताओं को परास्त कर दिया और स्वर्ग का राज्य हथिया कर वहां का राजा बन गया। सभी देवता उसके अधीन हो गए। तब यह देखकर दिति को बहुत प्रसन्नता हुई। एक दिन कश्यप मुनि के साथ मैं स्वयं वज्रांग के पास गया। मैंने वज्रांग से अनुरोध किया कि वह देवताओं को इंद्र की गलती की सजा न दे तथा इंद्र सहित सभी देवताओं को क्षमा कर दे। मेरे इस प्रकार कहने पर वज्रांग बोला- हे ब्रह्मन्! मुझे राज्य का कोई लोभ नहीं है। मैंने इंद्र की दुष्टता के कारण ही ऐसा किया है। इंद्र ने मेरी माता के गर्भ में घुसकर मेरे भाइयों को मारने का प्रयत्न किया था। तभी मैंने इंद्र के राज्य को जीतकर उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया है। भगवन्! मुझे भोग-विलास की भी कोई इच्छा नहीं है। इंद्र सहित सभी देवता अपने-अपने कर्मों का फल भोग चुके हैं। अब मैं स्वर्ग का राज्य इंद्र को वापस सौंप सकता हूं। मैंने अपनी माता की आज्ञा मानकर यह सब किया है। प्रभो! आप मुझे सार तत्व का उपदेश दें, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो। वज्रांग के उद्देश्य को उत्तम जानकर मैंने उसे सात्विक तत्व के बारे में समझाया। फिर मैंने एक सुंदर व गुणी स्त्री उत्पन्न की और उसका विवाह वज्रांग से करा दिया। वज्रांग ने अपने सभी बुरे विचारों को त्याग दिया परंतु उसकी पत्नी के हृदय में बुरे विचारों का ही मानो साम्राज्य था। उसकी पत्नी ने उसकी बहुत सेवा की। तब प्रसन्न होकर वज्रांग ने कहा- हे प्राणप्रिया! तुम क्या चाहती हो? मुझे बताओ। मैं तुम्हारी इच्छाएं अवश्य पूरी करूंगा। यह सुनकर वह परम सुंदरी बोली- पतिदेव! यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं तो कृपया मुझे इस त्रिलोकी को जीतने वाला महापराक्रमी और बलवान पुत्र प्रदान करिए। जो ऐसा बलवान हो कि समस्त देवता उससे भयभीत रहें। अपनी पत्नी के ऐसे वचन सुनकर वज्रांग सोच में डूब गया क्योंकि वह स्वयं देवताओं से किसी प्रकार का कोई बैर नहीं रखना चाहता था परंतु उसकी पत्नी देवताओं के साथ शत्रुता बढ़ाना चाहती थी। वज्रांग सोचने लगा कि यदि सिर्फ अपनी पत्नी की इच्छा को सर्वोपरि मानकर उसे पूरा कर दिया तो सारे संसार सहित देवताओं एवं मुनियों को दुख उठाना पड़ेगा और यदि पत्नी की इच्छा को पूरा नहीं किया तो मैं नरक का भागी बनूंगा। तब इस धर्म संकट में पड़ने के बाद उसने अपनी पत्नी की अभिलाषा को पूरा किया। अपनी पत्नी की इच्छानुसार पुत्र प्राप्त करने हेतु वज्रांग ने बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या की। मुझसे वर प्राप्त कर अत्यंत हर्षित होता हुआ वज्रांग अपनी पत्नी को पुत्र प्रदान करने हेतु अपने लोक में चला गया।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
पंद्रहवां अध्याय
"तारकासुर का जन्म व उसका तप"
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! कुछ समय बाद वज्रांग की पत्नी गर्भवती हो गई। समय पूर्ण होने पर उसकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। वह बालक बहुत लंबा-चौड़ा था। उसका शरीर बहुत अधिक विशाल था । वह अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी था। उसके जन्म के समय सारे संसार में कोहराम मच गया। चारों ओर उपद्रव होने लगे। आकाश में भयानक बिजलियां चमकने लगीं तथा चारों दिशाओं में भयंकर गर्जनाएं होने लगीं। धरती पर भूकंप आ गया। पहाड़ कांपने लगे। नदी, सरोवर का जल जोर-जोर से उछलने लगा। चारों ओर आंधियां चलने लगीं। सूर्य को राहु ने निगल लिया और चारों ओर अंधकार छा गया। उसके जन्म के समय के ऐसे अशुभ लक्षणों को देखते हुए कश्यप मुनि ने उसका नाम तारक रखा । तारक का जन्म हो जाने पर वज्रांग के घर ही उसका लालन-पालन होने लगा। थोड़े ही समय में तारक का शरीर और बड़ा हो गया। वह पर्वत के समान विशाल और विकराल होता जा रहा था। कुछ समय पश्चात तारक ने अपनी माता और पिता वज्रांग से तपस्या करने की आज्ञा मांगी। तब उसके माता-पिता ने प्रसन्नतापूर्वक उसको आज्ञा प्रदान कर दी। साथ ही उसकी माता ने उसे यह आदेश दिया कि वह देवताओं को अवश्य जीते और उन पर अपना आधिपत्य कर स्वर्ग पर अधिकार कर ले।
अपनी माता की आज्ञा पाकर वज्रांग का पुत्र तारक तपस्या करने के लिए मधुवन चला गया। वहां तारक ने मुझे प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करना आरंभ कर दिया। उसने अपने दोनों हाथों को सिर के ऊपर ऊंचा कर लिया और ऊपर की ओर देखने लगा तथा एक पैर पर खड़े होकर एकाग्र मन से सौ वर्ष तक तपस्या करता रहा। उस समय वह केवल जल और वायु से ही अपना जीवन यापन कर रहा था। तत्पश्चात उसने सौ वर्ष जल में, सौ वर्ष थल में, सौ वर्ष अग्नि में रहकर कठिन तप करके मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। फिर सौ वर्ष पृथ्वी पर हथेली धारण करके, सौ वर्ष वृक्ष की शाखा को पकड़कर तथा अनेकों प्रकार के दुख सह सहकर वह तप करता रहा। इस तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से तेज निकलने लगा। जिससे देव लोक जलने लगा। यह देखकर सभी देवता घबरा गए। फिर मैं स्वयं तारकासुर के पास वरदान देने के लिए गया। मैंने तारकासुर से कहा- तारक! मैं तुम्हारी इस दुस्सह तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने इस प्रकार कठोर तप करके मुझे प्रसन्न किया है। तुम्हारा इसके पीछे क्या प्रयोजन है, निस्संकोच मुझे बताओ। मैं तुम्हें तुम्हारा मनोवांछित फल अवश्य प्रदान करूंगा। तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो। ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर तारकासुर उनकी स्तुति करने लगा।
तत्पश्चात वह बोला ;- हे विधाता! हे ब्रह्माजी! अगर आप मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे वरदान देना चाहते हैं तो प्रभु मुझे पहला वर यह दें कि आपके द्वारा बनाई गई इस सृष्टि में, मेरे समान कोई भी
तेजवान और बलवान न हो। दूसरा वर यह दें कि मैं अमर हो जाऊं अर्थात कभी भी मृत्यु को प्राप्त न होऊं। तब मैंने कहा कि इस संसार में कोई भी अमर नहीं है । इसलिए तुम इच्छानुसार मृत्यु का वर मांगो। तारक ने अहंकार भरी विनम्रता से निवेदन किया- भगवन्! मेरी मृत्यु भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न बालक के चलाए हुए शस्त्र से ही हो और कोई मेरा वध न कर पाए।
मैंने तारक को उसके मांगे हुए वर प्रदान कर दिए तथा अपने लोक में लौट आया। वर पाकर तारक बहुत खुश था। वह भी वर प्राप्ति का समाचार देने के लिए अपने घर को चला गया। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने तारक को असुरों का राजा बना दिया। अब तारक तारकासुर नाम से प्रसिद्ध हो गया। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था इसलिए सबको पीड़ित कर, उनसे युद्ध कर, उन्हें हराकर सबके राज्यों पर अपना अधिकार करता जा रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र ने भी डरकर अपना वाहन ऐरावत हाथी, अपना खजाना और नौ सफेद रंग के घोड़े उसे दे दिए। ऋषियों ने डर के मारे कामधेनु गाय तारकासुर को दे दी। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी अपनी-अपनी प्रिय वस्तुएं तारकासुर को अर्पित कर दीं। अन्य लोगों के पास भी जो उत्तम उत्तम वस्तुएं थीं उन्हें भी दैत्यराज तारक ने अपने अधिकार में कर लिया। इतना ही नहीं समुद्रों ने भी भयभीत होकर अपने अंदर छिपे सभी अमूल्य रत्न निकालकर तारकासुर को सौंप दिए। तारकासुर के भय से पूरा जगत कांपने लगा था। उसका आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था। पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि सभी तारकासुर के डर के कारण अपने सभी कार्य सुचारु रूप से कर रहे थे। दैत्यराज तारकासुर ने देवताओं और पितरों के भागों पर भी अपना अधिकार जमा लिया था। उसने इंद्र को युद्ध में हराकर स्वर्ग का सिंहासन भी हासिल कर लिया था। उसने स्वर्ग के में सभी देवताओं को वहां से निष्कासित कर दिया, जो अपनी प्राण रक्षा के लिए इधर-उधर भटक रहे थे।