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शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के पहले अध्याय से पाचवें अध्याय तक (From the first chapter to the fifth chapter of Shiv Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

पहला अध्याय 

"तारकपुत्रों की तपस्या एवं वरदान प्राप्ति"

नारद जी बोले ;- हे प्रभो! आपने मुझे कुमार कार्तिकेय और श्रीगणेश के उत्तम तथा पापों को नाश करने वाले चरित्र को सुनाया। अब आप कृपा करके मुझे भगवान शिव के उस चरित्र को सुनाइए, जिसमें उन्होंने देवताओं और इस पृथ्वीलोक के शत्रुओं, दुष्ट दानवों और राक्षसों को लोकहितार्थ मार गिराया। साथ ही महादेव जी द्वारा एक ही बाण से तीन नगरों को एक साथ भस्म करने की कथा का भी वर्णन कीजिए।

ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! बहुत समय पूर्व, एक बार व्यास जी ने सनत्कुमार से इस विषय में पूछा था। उस समय जो कथा उन्होंने बताई थी वही आज मैं तुम्हें बताता हूं। जब देवताओं की रक्षार्थ भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध कर दिया गया, तब उसके तीनों पुत्रों तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष को बहुत दुख हुआ। वे तीनों ही महान बलशाली, जितेंद्रिय, सत्यवादी, संयमी, वीर और साहसी थे परंतु अपने पिता तारकासुर का वध देवताओं द्वारा होने के कारण उनके मन में देवताओं के लिए रोष उत्पन्न हो गया। तब उन तीनों ने अपना राज-पाट त्यागकर मेरु पर्वत की एक गुफा में जाकर उत्तम तपस्या करनी शुरू कर दी। उन्होंने अपनी कठिन और उग्र तपस्या से मुझ ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया। मैं उन तीनों असुरों को वरदान देने के लिए मेरु पर्वत गया।

वहां पहुंचकर मैंने तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष से कहा कि हे महावीर दैत्यो! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। मांगो, मुझसे क्या मांगना चाहते हो। तुम्हारी मनोकामना मैं अवश्य पूरी करूंगा। मुझे बताओ कि किस वरदान की प्राप्ति हेतु तुम लोगों ने इतना कठोर तप किया है?

ब्रह्माजी के ये वचन सुनकर उन तीनों तारक पुत्रों को बड़ा संतोष हुआ। तब उन्होंने मेरे चरणों में पड़कर प्रणाम किया और मेरा स्तवन करने लगे। 

तत्पश्चात वे बोले ;– हे देवेश ! हे विधाता! यदि आप वाकई हम पर प्रसन्न हैं तो हमें अवध्य होने का वरदान प्रदान कीजिए। कोई भी प्राणी हमारा वध करने में सक्षम न हो और हम अजर-अमर हों। हम चाहें तो किसी का भी वध कर सकें। प्रभो! हमें यही वरदान दीजिए कि हम अपने शत्रुओं को मौत के घाट उतार सकें और निभर्यतापूर्वक इस त्रिलोक में आनंद का अनुभव करते हुए विचरें। कोई हमारा बाल भी बांका न कर सके।

तारक पुत्रों के ऐसे वचन सुनकर मैं ब्रह्मा त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल भगवान शिव के चरणों का स्मरण करते हुए बोला ;- हे असुरो ! निःसंदेह ही तुम्हारी इस उत्तम तपस्या ने मुझे बहुत प्रसन्न किया है परंतु अमरत्व की प्राप्ति सभी को नहीं हो सकती है। यह प्रकृति का नियम है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। अतः इसके अतिरिक्त कोई अन्य वर मांगो। मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छित मृत्यु का वरदान दे सकता हूं। तुम जिस प्रकार अपनी मृत्यु चाहोगे, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु होगी।

मेरे इस प्रकार के वचन सुनकर तीनों तारक पुत्र कुछ देर के लिए सोच में डूब गए । 

तत्पश्चात वे बोले ;– भगवन्! यद्यपि हम तीनों ही महान बलशाली हैं। फिर भी हमारे पास रहने का कोई ऐसा स्थान नहीं है, जो पूर्णतया सुरक्षित हो और जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सकें। प्रभु! आप हम तीनों भाइयों के लिए तीन ऐसे नगरों का निर्माण करें, जो पूर्णतया सुरक्षित हों। ये तीनों अद्भुत नगर संपूर्ण धन-संपत्ति और वैभव से शोभित हों तथा अस्त्र शस्त्रों की सभी सामग्रियां भी वहां उपस्थित हों और उसे कोई भी नष्ट न कर सके। तब तारकाक्ष ने अपने लिए सोने का, कमलाक्ष ने चांदी का तथा विद्युन्माली ने कठोर लोहे का बना नगर वरदान में मांगा। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ये तीनों पुर दोपहर अभिजित मुहूर्त में चंद्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर एक साथ मिला करेंगे। ये तीनों ही महल आकाश में नीले बादलों में एक के ऊपर एक रहेंगे तथा जनसाधारण सहित किसी को भी नहीं दिखाई देंगे। एक सहस्र वर्षों बाद जब पुष्करावर्त नामक काले बादल बरस रहे हों, उस समय जब तीनों महल आपस में मिले, तब हम सबके वंदनीय भगवान शिव असंभव रथ पर बैठकर एक ही बाण से हमारे नगरों सहित हमारा भी वध करें।

इस प्रकार तारकासुर के पुत्रों के मांगे वरदान को सुनकर मैं मुस्कुराया और ‘तथास्तु’ कहकर उनका इच्छित वर उन्हें प्रदान कर दिया। फिर मय दानव को बुलाकर ऐसे तीन लोकों को बनाने की आज्ञा देकर मैं वहां से अपने लोक को लौट आया। मय ने मेहनत से तारकाक्ष के लिए सोने का, कमलाक्ष के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे के उत्तम लोकों का निर्माण किया। ये तीनों ही लोक सभी साधनों और सुविधाओं से संपन्न थे। इन तीनों लोकों का निर्माण होने के उपरांत वे तीनों अपने-अपने लोकों में चले गए और मय ने उन्हें एक के ऊपर एक करके, एक को आकाश में, एक को स्वर्ग के ऊपर और तीसरे को पृथ्वी लोक में स्थिर कर दिया। तत्पश्चात तीनों असुरों की आज्ञानुसार मय भी वहीं पर निवास करने लगा। तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली तीनों ही सदैव शिव-भक्ति में लीन रहा करते थे। इस प्रकार वे तीनों ही असुर अब आनंदपूर्वक अपने-अपने लोकों में सुखों को भोगने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

दूसरा अध्याय 

"देवताओं की प्रार्थना"

नारद जी बोले ;– हे पिताश्री! जब तारकासुर के तीनों पुत्र तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली आनंदपूर्वक अपने-अपने लोकों में निवास करने लगे, तब फिर आगे क्या हुआ? 

ब्रह्माजी बोले ;— हे नारद! तारकपुत्रों के तीनों लोकों के अद्भुत तेज से दग्ध होकर सभी देवतागण देवराज इंद्र साथ दुखी अवस्था में ब्रह्मलोक में मेरी शरण में आए। वहां मुझे नमस्कार करने के पश्चात देवताओं ने अपना दुख बताना शुरू किया। 

वे बोले ;– हे विधाता! त्रिपुरों के स्वामी, तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों तारकपुत्रों ने हम सभी देवताओं को संतप्त कर दिया है। भगवन्! अपनी रक्षा के लिए हम सभी आपकी शरण में आए हैं। प्रभु आप हमें उनके वध का कोई उपाय बताइए, ताकि हम अपने दुखों को दूर करके पुनः पहले की भांति अपने लोक में सुख से रह सकें। 

यह सुनकर मैंने उनसे कहा ;- हे देवताओ! तुम्हें इस प्रकार उन तारकपुत्रों से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी इच्छा के अनुसार मैं तुम्हें उनके वध का उपाय बताता हूं। उन तीनों ही असुरों को मैंने वरदान प्रदान किया है। अतः मैं उनका वध नहीं कर सकता।

इसलिए तुम सब भगवान शिव की शरण में जाओ वे ही तुम्हारी इस दुख की घड़ी में सहायता करेंगे। तुम उनके पास जाकर उन्हें प्रसन्न करो। मुझ ब्रह्मा के ये वचन सुनकर सभी देवता अपने स्वामी देवराज इंद्र के नेतृत्व में भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां सबने भक्तिभाव से भगवान शिव को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे । 

तत्पश्चात देवता बोले ;- हे महादेव जी! तारकासुर के तीनों पुत्रों ने हमें परास्त कर दिया है। यही नहीं उन्होंने सभी ऋषि-मुनियों को भी बंदी बना लिया है। वे उन्हें यज्ञ नहीं करने देते हैं। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। उन्होंने इस त्रिलोक को अपने वश में कर लिया है और पूरे संसार को नष्ट करने में लगे हुए हैं। ब्रह्माजी द्वारा इन तीनों को अवध्य होने का वरदान मिला है। इसी कारण वे तीनों बलशाली दानव मदांध हो चुके हैं और मनुष्यों और देवताओं को तरह-तरह से प्रताड़ित कर रहे हैं।

   हे भक्तवत्सल ! हे करुणानिधान! हम सब देवता परेशान होकर आपकी शरण में इस आशा के साथ आए हैं कि आप हम सबकी उन तीनों असुरों से रक्षा करेंगे तथा इस पृथ्वी और स्वर्ग को उनके आतंकों से मुक्ति दिलाऐंगे। भगवन्! इससे पहले कि वे इस जगत का ही विनाश कर दें आप उनसे हम सबकी रक्षा करें।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

तीसरा अध्याय 

"भगवान शिव का देवताओं को विष्णु के पास भेजना"

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! इस प्रकार सब देवताओं ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को उन तीनों तारकपुत्रों के आतंक के विषय में सब कुछबता दिया। तब सारी बातें सुनकर,,

भगवान शिव बोले ;— हे देवताओ! मैंने तुम्हारे कष्टों को जान लिया है। मैं जानता हूं कि तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली ने तुम्हें बहुत परेशान किया हुआ है परंतु फिर भी वे तीनों पुण्य कार्यों में लगे हुए हैं। वे तीनों मेरे भक्त हैं और सदा मेरे ध्यान में निमग्न रहते हैं। भला मैं अपने भक्तों को कैसे मार सकता हूं। वे तीनों तारकपुत्र पुण्य संपन्न हैं। वे प्रबल होने के साथ साथ भक्तिभावना भी रखते हैं। जब तक उनका पुण्य संचित है और वे मेरी आराधना करते रहेंगे, मेरे लिए उन्हें मारना असंभव है क्योंकि स्वयं ब्रह्माजी के अनुसार मित्रद्रोह से बढ़कर कोई भी पाप नहीं है। जब वे तीनों असुर नियमपूर्वक मेरी पूजा-आराधना करते हैं, तो मैं क्यों बिना किसी ठोस कारण से उनका वध करूं? हे देवताओ। इस समय मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता । अतः तुम सब श्रीहरि विष्णु की शरण में जाओ। अब वे ही तुम्हारा उद्धार करेंगे।

भगवान शिव की आज्ञा पाकर सभी देवताओं ने उन्हें पुनः हाथ जोड़कर प्रणाम किया और श्रीहरि विष्णु से मिलने के लिए उनके निवास बैकुंठ लोक की ओर चल दिए। उन्होंने अपने साथ मुझ ब्रह्मा को भी ले लिया बैकुंठ लोक पहुंचकर सब देवताओं ने भक्तिपूर्वक श्रीहरि को प्रणाम किया और उन्हें भगवान शिव द्वारा कही गई सब बातों से अवगत कराया।

देवताओं की बातें सुनकर भगवान विष्णु बोले ;- हे देवताओ! यह बात सत्य है कि जहां सनातन धर्म और भक्तिभावना हो, वहां ऐसा करना उचित नहीं होता। तब देवता पूछने लगे कि प्रभु हम क्या करें? हमारा दुख कैसे दूर होगा? प्रभु! आप शीघ्र ही उन तारकपुत्रों के वध का कोई उपाय कीजिए अन्यथा हम सभी देवता अकाल ही मृत्यु का ग्रास बन जाएंगे। भगवन्! आप ऐसा उपाय कीजिए, जिससे वे तीनों असुर सनातन धर्म से विमुख होकर अनाचार का रास्ता अपना लें। उनके वैदिक धर्म का नाश हो जाए और वे अपनी इंद्रियों के वश में हो जाएं। वे दुराचारी हो जाएं तथा उनके सभी शुभ आचरण समाप्त हो जाएं।

तब देवताओं की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु एक पल को सोच में डूब गए। 

तत्पश्चात बोले ;— तारकपुत्र तो स्वयं भगवान शिव के भक्त हैं परंतु फिर भी जब तुम सब मेरी शरण में आए हो तो मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा। तुम्हारी सहायता अवश्य ही करूंगा।

तब श्रीहरि विष्णु ने मन ही मन यज्ञों का स्मरण किया। उनका स्मरण होते ही यज्ञगण तुरंत वहां उपस्थित हो गए। वहां श्रीहरि को नमस्कार करके उन्होंने पूछा कि प्रभु! आपने हमें यहां क्यों बुलाया है? तब श्रीहरि मुस्कुराए और बोले कि हमें तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है। इसलिए हमने तुम्हारा स्मरण किया है। तब वे देवराज इंद्र से बोले कि हे देवराज! आप त्रिलोक की विभूति के लिए यज्ञ करें। यज्ञ के द्वारा ही तारकपुत्रों के तीनों पुरों (नगरों) का विनाश संभव है।

भगवान श्रीहरि विष्णु के ये वचन सुनकर सभी देवताओं ने आदरपूर्वक विष्णुजी का धन्यवाद किया और उन्हें प्रणाम करने के पश्चात यज्ञ के ईश्वर की स्तुति करने लगे। तत्पश्चात उन्होंने बहुत विशाल यज्ञ का आयोजन किया। सविधि उन्होंने उत्तम यज्ञ भक्ति भावना से आरंभ किया। यज्ञ अग्नि प्रज्वलित हुई। यज्ञ पूर्ण होने पर उस यज्ञ कुंड से शूल शक्तिधारी विशालकाय हजारों भूतों का समुदाय निकल पड़ा। तत्पश्चात अनेक रूपों से युक्त नाना वेषधारी, कालाग्नि रुद्र के समान तथा काल सूर्य के समान प्रकट हुए उन भूतों ने भगवान विष्णु को नमस्कार किया। उन भूतगणों को आज्ञा देते हुए,,

विष्णुजी बोले ;- हे भूतगणो! देवकार्य को पूरा करने के लिए तुम जाकर त्रिपुरों को नष्ट करो । विष्णुजी की आज्ञा सुनकर वे भूतगण दैत्यों के उस महासुंदर नगर त्रिपुर की ओर चल दिए। जब उन्होंने त्रिपुर नगरी में घुसना चाहा तो वहां के तेज से वे भस्म हो गए। जो भूतगण बचे वे लौटकर भगवान विष्णु के पास वापस आ गए तथा उन्होंने श्रीहरि को इस बात की सूचना दी।

जब भगवान विष्णु को इस प्रकार भूतगणों के नगरी के तेज से जलने की जानकारी हुई तो वे अत्यंत चिंतित हो गए। तब उन्होंने देवताओं को समझाया कि वे अपनी चिंता त्यागकर अपने-अपने लोकों को जाएं। मैं इस संबंध में विचार करके आपके लाभ के लिए यथासंभव कार्य करूंगा। मैं तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों असुरों को शिवभक्ति से विमुख करने का प्रयास करता हूं, तभी उन पर विजय पाना संभव होगा । तब श्रीहरि को प्रणाम करके सभी देवता अपने-अपने लोकों को वापस लौट गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

चौथा अध्याय 

"नास्तिक शास्त्र का प्रादुर्भाव"

ब्रह्माजी नारद से बोले ;- तब भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपनी आत्मा के तेज से अत्यंत तेजस्वी एक मायावीर पुरुष प्रकट किया। उसका सिर मुंडा हुआ था। उसने अत्यंत गंदे वस्त्र पहने हुए थे। उसके एक हाथ में लकड़ी का एक कटोरा तथा दूसरे हाथ में झाड़ू थी । उसने अपने मुख पर वस्त्र लपेट रखा था। 

व्याकुल वाणी में उसने श्रीहरि को प्रणाम किया और पूछा ;- हे प्रभु! मेरी उत्पत्ति का क्या प्रयोजन है? भगवन् मैं कौन हूं?

तब श्रीहरि विष्णु ने उत्तर दिया ;- हे वत्स! तुम मेरे शरीर से ही उत्पन्न हुए हो। इसलिए तुम 'अरिह' नाम से जाने जाओगे। तुम्हें मैंने एक विशेष कार्य के लिए उत्पन्न किया है। तुम बड़े मायावी हो। तुम्हें एक ऐसे शास्त्र की रचना करनी है जिसमें सोलह हजार श्लोक होंगे। जिसमें वर्णाश्रम धर्म की जानकारी होगी तथा जिसमें अपभ्रंश शब्दों व कर्म-विवाह की भी व्याख्या की गई होगी।

विष्णुजी के इन वचनों को सुनकर अरिह ने उन्हें प्रणाम किया और बोला कि मेरे लिए अब क्या आज्ञा है? तब श्रीहरि ने उसे माया से रचित वह अद्भुत शास्त्र पढ़ाया जिसका मूल यह था कि स्वर्ग और नरक सब यहीं हैं। उनका अलग से कोई भी अस्तित्व नहीं है। तब विष्णु ने अरिह को आज्ञा दी कि वह सब दैत्यों को जाकर शास्त्र पढ़ाए और उनकी बुद्धि का नाश करे। इस प्रकार यह शास्त्र पढ़कर त्रिपुरों में तमोगुण की वृद्धि होगी, जो उनके विनाश का कारण सिद्ध होगी। मेरी कृपा से तुम्हारे इस धर्म का विस्तार होगा। तत्पश्चात तुम मरुस्थल में निवास करना । तुम्हारा कार्य कलयुग आने पर ही पुनः आरंभ होगा।

ऐसा कहकर श्रीहरि विष्णु अंतर्धान हो गए। तब अरिह ने भगवान विष्णु की आज्ञा के अनुसार अपने अनेक शिष्य बनाए और उन्हें उसी मायामय शास्त्र की शिक्षा दी। विशेष रूप से उनके चार शिष्य बने जिनको उन्होंने कृषि, पत्ति, कीर्य और उपाध्याय नाम प्रदान किया। वे चारों शिष्य अपने गुरु के समान ही आचरण करने वाले थे। उनका एक ही धर्म था - पाखंड। वे नाक पर कपड़ा लपेटे गंदे वस्त्र धारण करके इधर-उधर घूमते रहते थे । एक दिन अरिह अपने चारों शिष्यों को अपने साथ लेकर त्रिपुर नगर में चल दिए। वहां पहुंचकर उन्होंने अपनी माया फैलानी आरंभ की, परंतु भगवान शिव की कृपा से उस त्रिपुरी में उनकी माया का प्रभाव नहीं हो रहा था। तब उन्होंने व्याकुल होकर भगवान विष्णु का स्मरण किया। भगवान विष्णु ने अलौकिक गति से सभी बातें जान लीं।

भगवान शिव का ध्यान करते हुए विष्णुजी ने हे नारद तब तुम्हारा स्मरण किया। अपने स्वामी के स्मरण करते ही तुम तत्काल उनकी सेवा में उपस्थित हो गए। उन्हें प्रणाम करके तुमने याद करने का कारण पूछा। तब श्रीहरि ने तुम्हें आज्ञा प्रदान की कि तुम अरिह और उसके शिष्यों को साथ लेकर त्रिपुर नगरी में प्रवेश करो और वहां के निवासियों को मोहित करके उन्हें माया से ओत-प्रोत उस शास्त्र की शिक्षा प्रदान करो। अपने आराध्य भगवान श्रीहरि की आज्ञा शिरोधार्य कर तुम उन पाखण्डी ब्राह्मणों को साथ लेकर त्रिपुर नगरी की ओर चल दिए। वहां जाकर तुम तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक त्रिपुर स्वामियों से मिले तथा उनसे उस मायामय शास्त्र की प्रशंसा करने लगे। तुमने उन्हें बताया कि तुम इसी शास्त्र से शिक्षा ग्रहण करते हो। यह बात जानकर उन त्रिपुर स्वामियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे उस मायामय शास्त्र की माया से मोहित होने लगे। तब उन्होंने 'अरिह' को अपना गुरु बना लिया और उनसे दीक्षा लेने लगे। यह देखकर त्रिपुरों के अन्य निवासी भी उन मायावी शिष्यों एवं उनके गुरु से शिक्षा ग्रहण करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

पाँचवा अध्याय 

"नास्तिक मत से त्रिपुर का मोहित होना"

नारद जी ने पूछा ;- हे ब्रह्मदेव! उन तीनों महा बलशाली दैत्यराजों के उन मायावी और पाखंडी अरिह और उनके शिष्यों द्वारा शिक्षा ग्रहण होने पर वहां क्या हुआ? उन मायावी पुरुषों ने क्या किया? कृपया मुझे बताइए ,नारद जी का प्रश्न सुनकर,,

 ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! जब त्रिपुर के राजा ही उस मायामय शास्त्र द्वारा दीक्षित हो गए तो वहां की जनता क्यों नहीं होती? अरिहन ने कहा- मेरा ज्ञान वेदांत का सार है । यह अनादिकाल से चला आ रहा है। इसमें कर्ता कर्म नहीं है। आत्मा के देह अर्थात शरीर से जितने भी बंधन हैं, वे सब ईश्वर के ही हैं। ईश्वर के समान कोई भी न तो शक्तिशाली है और न ही सामर्थ्यवान । ब्रह्मा, विष्णु और महेश सब अरिहन ही कहे जाते हैं। समय आने पर ये तीनों ही लीन हो जाते हैं। आत्मा एक है। मृत्यु सभी के लिए सत्य है। मृत्यु शाश्वत है और सबके लिए निश्चित है। इसलिए हमें कभी भी हिंसा नहीं करनी चाहिए और सदा ही अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहिए। अहिंसा ही परम धर्म है। किसी को दुख पहुंचाना महापाप है। इसलिए हमें कभी भी कमजोर और निर्बलों को नहीं सताना चाहिए। दूसरों को क्षमा करना ही सबसे बड़ा गुण है। इसलिए सदा अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए।

हिंसा और लड़ाई झगड़े का मार्ग हमें नरक की ओर ले जाता है। इसलिए किसी को डराओ-धमकाओ मत। सदैव विनम्रता का आचरण करो। भूखों को भोजन दो। रोगियों को औषधि और छात्रों को विद्या का दान करो। भक्ति के साथ उपासना करो। आडंबरों की कोई आवश्यकता नहीं होती। मन को शुद्ध रखो तथा बारह स्थानों की पूजा करो, जिनमें पांच कर्मेंद्रिया, पांच ज्ञानेंद्रियां तथा मन व बुद्धि सम्मिलित हैं। इसी धरा पर ही स्वर्ग और नरक दोनों स्थित हैं। अतः अनावश्यक रूप से उनकी कामना मन में लेकर अपनों को कष्ट देना पूर्णतः गलत है। शांति और सुखपूर्वक मरना ही मोक्ष की प्राप्ति है।

स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा मन में लेकर हवन की अग्नि में तिल, घी और पशु की बलि देना कहां की मानवता है। इस प्रकार उन असुर राजाओं को अपना जीवन-दर्शन सुनाकर अरिह उस पुर के निवासियों से बोले कि मनुष्य को सुखपूर्वक निवास करना चाहिए। आनंद ही ब्रह्म है और परम ब्रह्म की प्राप्ति सिर्फ एक कल्पना है। तभी कहता हूं कि जब तक आपका शरीर स्वस्थ और समर्थ है, अपने सुख का मार्ग ढूंढ़कर उसका अनुसरण करो । अन्यथा शीघ्र ही तुम पर बुढ़ापा आ जाएगा और तुम्हारा शरीर नष्ट हो जाएगा। इसलिए ज्ञानियों को स्वयं अपने सुख की खोज करनी चाहिए। मेरी इस बात का समर्थन वेद भी करते हैं। मनुष्य को जाति-पांति के बंधनों में फंसकर कभी किसी को कम नहीं समझना चाहिए। सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। उनके दक्ष और मरीचि नामक दो पुत्र हुए।

मरीचि के पुत्र कश्यप जी ने दक्ष की तेरह कन्याओं का धर्म से विवाह कराया। फिर प्रजापति के मुख, बाहु, उरु, जंघा और चरण से वर्ण उत्पन्न हुए। ऐसा कहा जाता है, परंतु ये सभी बातें गलत जान पड़ती हैं, क्योंकि एक ही शरीर से जन्म लेने वाले सभी पुत्र भिन्न-भिन्न रूप वाले कैसे हो सकते हैं? इसलिए वर्ण भेद को अनुचित मानना चाहिए ।

ब्रह्माजी बोले ;- इस प्रकार उन अरिह नामक धर्मात्मा ने अपने भाषण द्वारा तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों असुरों के निवासियों को वेद मार्ग से विमुख कर दिया। साथ ही उन्होंने पतिव्रता स्त्रियों के पतिव्रता धर्म और पुरुषों के जितेंद्रिय धर्म को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने धर्म, यज्ञ, तीर्थ, श्रद्धा और धर्मशास्त्रों का भी खंडन किया। विशेषरूप से उन्होंने भगवान शिव की पूजा न करने के लिए सभी को प्रोत्साहित किया और सब देवताओं के पूजन और आराधना को व्यर्थ बताया। इस प्रकार उन अरिह ने पुर के वासियों को अपने झूठे धर्म और पाखंड से मोहित कर दिया। इस प्रकार वहां अधर्म फैल गया। तत्पश्चात भगवान श्रीहरि विष्णु की माया से देवी महालक्ष्मी भी उन त्रिपुरों में अपना अनादर देख उस स्थान को त्यागकर चली गईं।

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