।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
छियालीसवाँ अध्याय
"शिव का परिछन व पार्वती का सुंदर रूप देख प्रसन्न होना"
ब्रह्माजी बोले ;– नारद! भगवान शिव सबको आनंदित करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने गणों, देवताओं, सिद्ध मुनियों तथा अन्य लोगों के साथ गिरिराज हिमालय के धाम में गए। हिमालय की पत्नी मैना भी अंदर से शिवजी की आरती उतारने के लिए सुंदर दीपकों से सजी हुई थाली लेकर बाहर आईं। उस समय उनके साथ ऋषि पत्नियां तथा अन्य स्त्रियां भी मौजूद थीं। भगवान शिव का मनोहर रूप चारों ओर अपनी कांति बिखेर रहा था। उनकी शोभा करोड़ों कामदेवों के समान थी। उनके प्रसन्न मुखारबिंद पर तीन नेत्र थे। अंगकांति चंपा के समान थी। शरीर पर सुंदर वस्त्र और आभूषण उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा रहे थे। उनके मस्तक पर सुंदर चंद्रमुकुट लगा था, गले में हार तथा हाथों में कड़े तथा बाजूबंद उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। चंदन, कस्तूरी, कुमकुम और अक्षत से उनका शरीर विभूषित था। उनका रूप दिव्य और अलौकिक था, जो अनायास ही सबको अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। उनका मुख अनेकों चंद्रमाओं की चांदनी के समान उज्ज्वल और शीतल था । ऐसे परम सुंदर और मनोहर रूप वाले दामाद को पाकर हिमालय पत्नी मैना की सभी चिंताएं दूर हो गईं। वे आनंदमग्न होकर अपने भाग्य की सराहना करने लगीं। शिवजी को दामाद बनाकर स्वयं को कृतार्थ मानने लगीं और अपनी पुत्री पार्वती, अपने पति हिमालय तथा अपने कुल को धन्य मानने लगीं। उस समय प्रसन्नतापूर्वक वे शिवजी की आरती उतारने लगीं। आरती उतारते हुए देवी मैना सोच रही थीं कि जैसा पार्वती ने महादेव जी के बारे में बताया था, ये उससे भी अधिक सुंदर हैं। इनका रूप लावण्य तो चित्त को प्रसन्नता देने वाला तथा समस्त पापों और दुखों का नाश करने वाला है। विधिपूर्वक आरती पूरी करने के पश्चात मैना अंदर चली गईं।
उस समय उस विवाह में पधारी युवतियों ने वर के रूप में पधारे परमेश्वर शिव के सुंदर, कल्याणकारी और मनोहारी रूप की बहुत प्रशंसा की। वे आपस में हंसी-ठिठोली कर रही थीं। साथ ही साथ अपनी सखी पार्वती के भाग्य की भी सराहना कर रही थीं कि उसे शिवजी जैसे वर की प्राप्ति हुई है। वे मैना से कहने लगीं कि हमने तो इतना सुंदर वर किसी के विवाह में भी नहीं देखा है। पार्वती धन्य हैं जो उसे ऐसा पति प्राप्त हो रहा है। भगवान शिव के सुंदर मनोहारी रूप के दर्शन करके सब देवताओं सहित ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। गंधर्व भगवान शिव के यश का गान करने लगे तथा अप्सराएं प्रसन्न होकर नृत्य करने लगीं। उस समय गिरिराज हिमालय के यहां आनंद ही आनंद था। हिमालय ने आदरपूर्वक मंगलाचार किया और मैना सहित वहां उपस्थित सभी नारियों ने वर का परिछन किया तथा घर के भीतर चली गईं। तत्पश्चात महादेव जी व उनके साथ बारात में पधारे हुए सभी महानुभाव जनवासे में चले गए। तत्पश्चात साक्षात दुर्गा का अवतार देवी पार्वती कुलदेवी की पूजा करने के लिए अपने कुल की स्त्रियों सहित अपने अंतःपुर से बाहर आईं। वहां जिसकी दृष्टि भी पार्वती पर पड़ी, वह उन्हें देखता ही रह गया। पार्वती की अंगकांति नील अंजन के समान थी। उनके लंबे, घने और काले केश सुंदर चोटी में गुंथे हुए थे। मस्तक पर कस्तूरी की बेदी के साथ सिंदूरी बिंदी उनके रूप लावण्य को बढ़ा रही थी। उनके गले में अनेक सुंदर रत्नों से जड़े हार शोभा पा रहे थे। सुंदर रत्नों से बने केयूर, वलय और कंकण उनकी भुजाओं को विभूषित कर रहे थे। रत्नों से जड़े कानों के कुंडल दमकती शोभा से उनके गालों पर अनुपम छवि बना रहे थे। उनके मोती के समान सुंदर एवं सफेद दांत अनार के दानों की भांति चमक रहे थे। उनके होंठ मधु से भरे बिंबफल की तरह लाल थे। महावर पैरों की शोभा में वृद्धि कर रही थी। उनके अंगों में चंदन, अगर, कस्तूरी और कुमकुम का अंगराग लगा हुआ था। पैरों में पड़ी पायजेब से निकली घुंघरुओं की रुनझुन रुनझुन की आवाज कानों में मधुर संगीत घोल रही थी। उनकी इस मंत्रमुग्ध छवि को देखकर सभी देवता उनके सामने नतमस्तक होकर जगत जननी पार्वती को भक्तिभाव से प्रणाम कर रहे थे। उस समय भगवान शिव भी उनके इस अनुपम सौंदर्य को कनखियों से देखकर हर्ष का अनुभव कर रहे थे। पार्वती के अनुपम रूप को देखकर शिवजी ने अपनी विरह की वेदना को त्याग दिया। पार्वती के रूप ने उनको मोहित कर दिया था।
इधर पार्वती ने कुलदेवताओं की प्रसन्नता के लिए उनका विधि-विधान से पूजन किया। तत्पश्चात वे अपनी सखियों और ब्राह्मण पत्नियों के साथ पुनः महल में लौट गईं। उधर मैं, विष्णुजी व भगवान शिव भी अपने-अपने स्थान पर ठहर गए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
सैंतालीसवाँ अध्याय
"वर-वधू द्वारा एक-दूसरे का पूजन"
ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! गिरिराज हिमालय ने उत्साहपूर्वक वेद मंत्रों द्वारा पार्वती और शिवजी को उपस्नान करवाया। तत्पश्चात वैदिक और लौकिक आचार रीति का पालन करते हुए भगवान शिव द्वारा लाए गए वस्त्रों एवं आभूषणों से गिरिजानंदिनी देवी पार्वती को सजाया गया। पार्वती की सखियों और वहां उपस्थित ब्राह्मण पत्नियों ने पार्वती को उन सुंदर वस्त्रों एवं सुंदर रत्नजड़ित आभूषणों से अलंकृत किया। शृंगार करने के उपरांत तीनों लोकों की जननी महाशैलपुत्री देवी शिवा अपने हृदय में महादेव जी का ही ध्यान कर रही थीं। उस समय उनका मुखमंडल चंद्रमा की चांदनी के समान सुंदर व दिव्य लग रहा था । हिमालयनगरी में चारों ओर महोत्सव होने लगा। लोगों की प्रसन्नता और उल्लास देखते ही बनता था। उस समय वहां हिमालय ने शास्त्रोक्त रीति से लोगों को बहुत दान दिया और अन्य वस्तुएं भी बांटीं।
गिरिराज हिमालय के राजपुरोहित मुनि गर्ग जी ने हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज । लग्न का समय हो रहा है। आप भगवान शिव तथा अन्य सभी बारातियों को यथाशीघ्र यहां बुला लें। तब शैलराज के मंत्री सब देवताओं सहित भगवान शिव को बुलाने के लिए जनवासे में गए और उन्हें जल्दी विवाह मंडप में पधारने का निमंत्रण दिया। उन्होंने शिवजी से कहा कि प्रभु ! कन्यादान का समय नजदीक आ गया है । वर और कन्या को पंडित जी बुला रहे हैं। तब भगवान सुंदर वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर अपने वाहन नंदी पर बैठकर सब देवताओं और ऋषि-मुनियों के साथ मण्डप की ओर चल दिए। साथ में उनके गण भी अपने स्वामी भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए नाचते-गाते चलने लगे। शिवजी के मस्तक पर छत्र था और चारों ओर चंवर डुलाया जा रहा था। महान उत्सव हो रहा था। शंख, भेरी, पटह, आनक, गोमुख बाजे बज रहे थे। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। चारों दिशाओं से देवगण उन पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। इस प्रकार महादेव जी सुशोभित होकर यज्ञ के मंडप पर पहुंचे।
मंडप के द्वार पर उनकी प्रतीक्षा कर रहे पर्वतों ने आदरपूर्वक उन्हें नंदी पर से उतारा और भीतर ले गए। शैलराज हिमालय ने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया और विधि-विधान के अनुसार उनकी आरती उतारी। उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु, मुझे तथा सदाशिव को पाद्य अर्घ्य दिया और सुंदर उत्तम आसनों पर हमें बैठाया। तत्पश्चात शैलराज प्रिया देवी मैना ब्राह्मण स्त्रियों व पुरवासिनों के साथ वहां पधारी। उन्होंने अपने दामाद भगवान शिव की आरती उतारी और उनका मधुपर्क से पूजन किया तथा सारे मंगलमय कार्य संपन्न किए।
तत्पश्चात शैलराज हिमालय, मुझे, विष्णुजी व भगवान शिव को साथ लेकर उस स्थान पर गए जहां देवी पार्वती वेदी पर बैठी हुई थीं। तब वहां बैठे सभी ऋषि-मुनि, समस्त देवता व अन्य शिवगण उत्सुकता से शिव-पार्वती के लग्न की प्रतीक्षा करने लगे। हिमालय के कुलगुरु श्री गर्ग जी ने पार्वती जी की अंजलि में चावल भरकर शिवजी के ऊपर अक्षत डाले। तत्पश्चात पार्वती जी ने दही, अक्षत, कुश और जल से आदरपूर्वक भगवान शिव का पूजन किया। पूजन करते समय प्रसन्नतापूर्वक पार्वती भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को निहार रही थीं। पार्वती जी के अपने वर शिवजी का पूजन कर लेने के पश्चात गर्ग मुनि के कथनानुसार त्रिलोकीनाथ महादेव जी ने अपनी वधू होने जा रही देवी पार्वती का पूजन किया। इस प्रकार एक-दूसरे का पूजन करने के पश्चात वर-वधू शिव व पार्वती वहीं वेदी पर बैठ गए। उनकी छवि अत्यंत उज्ज्वल और मनोहर थी। दोनों वहां बहुत शोभा पा रहे थे। तब लक्ष्मी आदि सभी देवियों ने उनकी आरती उतारी।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
अड़तालीसवाँ अध्याय
"शिव-पार्वती का विवाह आरंभ"
ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! गर्ग मुनि की आज्ञा के अनुसार शैलराज हिमालय ने कन्यादान की रस्मों को निभाना शुरू किया। शैलराज प्रिया मैना जी सुंदर वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर हाथों में सोने का कलश लेकर अपने पति हिमालय के दाहिने भाग में बैठी हुई थीं। शैलराज हिमालय ने भगवान शिव का पाद्य से पूजन करने के पश्चात सुंदर वस्त्रों, आभूषणों एवं चंदन से उन्हें अलंकृत किया तथा ब्राह्मणों से बोले कि हे ब्राह्मणो! अब आप कन्यादान हेतु संकल्प कराइए। तब श्रेष्ठ मुनिगण सहर्ष संकल्प पढ़ने लगे।
तब गिरिश्रेष्ठ हिमालय ने आदरपूर्वक वर रूप में विराजमान भगवान शिव से पूछा ;- हे शिव शंकर! विधि-विधान से पार्वती का पाणिग्रहण करने हेतु आप अपने कुल का परिचय दें। आप अपना गोत्र, प्रवर, कुल नाम, वेद शाखा सबकुछ ब्राह्मणों को बता दें।
गिरिराज का यह प्रश्न सुनकर भगवान शंकर गंभीर होकर कुछ सोचने लगे। सब देवताओं, ऋषि-मुनियों ने जब भगवान शिव को इस प्रकार चुप देखा तो वे इस संबंध में कुछ भी उत्तर नहीं दे रहे थे और शांत थे। तब यह देखकर कन्या पक्ष के कुछ लोग उन पर हंसने लगे। नारद ! यह देखकर तुम तत्काल पार्वती के पिता शैलराज के पास पहुंचे और बोले- हे पर्वतराज! आप भगवान शिव से उनका गोत्र पूछकर बहुत बड़ी मूर्खता कर रहे हैं। उनका कुल, गोत्र आदि तो ब्रह्मा, विष्णु आदि भी नहीं जानते तो और भला कोई कैसे जान सकता है? भगवान शिव तो निर्गुण और निराकार हैं। वे परमब्रह्म परमेश्वर हैं । वे निर्विकार, मायाधारी एवं परात्पर हैं। वे तो स्वतंत्र परमेश्वर हैं, जिनका कुल, गोत्र आदि से कुछ भी लेना देना नही है। ये सब तो मनुष्यों के द्वारा निर्मित आडंबर मात्र हैं। शिवजी तो अपनी इच्छा के अनुसार के रूप और अवतार धारण करने वाले हैं। यह तो पार्वती के द्वारा किए हुए उग्र तप का प्रभाव है जिसके कारण आप शिवजी के साक्षात स्वरूप के दर्शन कर पा रहे हैं। शैलराज! भगवान शिव गोत्रहीन होकर भी श्रेष्ठ गोत्र वाले हैं और कुलहीन होने पर भी कुलीन हैं। इनकी विविध लीलाएं इस चराचर संसार को मोहित करने वाली हैं।
हे गिरिश्रेष्ठ हिमालय! नाना प्रकार की लीला करने वाले इन भगवान शिव का गोत्र और कुल नाद है। शिव नादमय हैं और नाद शिवमय है। नाद और शिव में कहीं कोई अंतर नहीं है। जब भगवान शिव ने सृष्टि की रचना का विचार किया था तब सबसे पहले शिवजी ने क ही प्रकट किया था। इसलिए अब आप व्यर्थ की बातों को त्यागकर अपनी पुत्री पार्वती का विवाह यथाशीघ्र शिवजी के साथ संपन्न करा दो।
नारद! तुम्हारी बात सुनकर शैलराज हिमालय के मन में उत्पन्न हुई शंका समाप्त हो गई। तब हम सभी देवताओं ने तुम्हें धन्यवाद दिया कि तुमने इस विषम परिस्थिति को चतुराई से संभाल लिया। यह सब जानकर वहां उपस्थित सभी विद्वान प्रसन्नतापूर्वक बोले कि हमारे अहोभाग्य हैं, जो आज हमने इस जगत को प्रकट करने वाले, आत्मबोध स्वरूप स्वतंत्र परमेश्वर, नित्य नई लीलाएं रचने वाले त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के दर्शन कर लिए हैं। आपके दर्शनों से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार सब मिलकर भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। तब वहां उपस्थित मेरु आदि अनेक पर्वतों ने शैलराज हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज ! अब आप व्यर्थ का विलंब क्यों कर रहे हैं? जल्दी से अपनी कन्या पार्वती का दान क्यों नहीं करते?
तब हिमालय-मैना ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती का कन्यादान कर दिया।
कन्यादान करते समय पर्वतराज बोले ;- हे परमेश्वर करुणानिधान भगवान शिव! मैं अपनी कन्या पार्वती आज आपको देता हूं। आप इसे अपनी पत्नी बनाकर मुझे और मेरे कुल को कृतार्थ करें।
इस प्रकार शैलराज हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का हाथ व जल भगवान शिव के हाथों में दे दिया। तब सदाशिव ने वेद मंत्रों के वचनों के अनुसार मंत्रों को बोलते हुए देवी पार्वती का हाथ लेकर पृथ्वी का स्पर्श करते हुए लौकिक रीति से उनका पाणिग्रहण स्वीकार किया। इस प्रकार गिरिराज के कन्यादान करते ही चारों ओर शिव-पार्वती की जय-जयकार की ध्वनि गूंजने लगी। गंधर्व प्रसन्नतापूर्वक उत्तम गीत गाने लगे और सुंदर अप्सराएं मगन होकर नाचने लगीं। सभी इस मंगलमय विवाह के संपन्न होने पर मन में बहुत प्रसन्न थे । ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र आदि सभी देवता भी बहुत प्रसन्न हुए। उसके बाद शैलराज हिमालय ने भगवान शिव को अनेकों वस्तुएं प्रदान कीं। रत्नों से जड़े हुए सुंदर स्वर्ण के आभूषण, पात्र एवं दूध देने वाली सवा लाख गौएं, एक लाख सुसज्जित अश्व, एक करोड़ हाथी तथा एक करोड़ सोने जवाहरातों से जड़े रथ आदि वस्तुएं सादर भेंट कीं। उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती की सेवा में लगे रहने के लिए एक लाख दासियां भी दीं। तत्पश्चात विवाह में पधारे अनेक पर्वतों ने भी अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार उत्तम वस्तुएं शिव-पार्वती को उपहार स्वरूप भेंट कीं। इस विवाह से सभी प्रसन्न थे। सारी दिशाएं शहनाइयों की मधुर ध्वनि से गुंजायमान थीं। आकाश से भगवान शिव और उनकी प्रिया पार्वती पर पुष्प वर्षा हो रही थी। कल्याणमयी और भक्तवत्सल भगवान शिव को अपनी प्रिय पुत्री पार्वती को समर्पित करने के बाद शैलराज हिमालय और उनकी प्रिय पत्नी मैना हर्ष से प्रफुल्लित हो रहे थे। शैलराज हिमालय ने यजुर्वेद की माध्यंदिनी में लिखे हुए स्तोत्रों द्वारा शुद्ध हृदय और भक्तिभाव से भगवान शिव की अनेकानेक बार स्तुति की। तत्पश्चात वहां उपस्थित श्रेष्ठ मुनिजनों ने उत्साहपूर्वक भगवान शिव और देवी पार्वती के सिर का अभिषेक किया। उस समय हिमालय नगरी में महान उत्सव हो रहा था। सभी नर-नारी प्रसन्नता से नाच-गा रहे थे।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
उनचासवाँ अध्याय
"ब्रह्माजी का मोहित होना"
ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! उसके उपरांत मेरी आज्ञा पाकर महादेव जी ने अग्नि की स्थापना कराई तथा अपनी प्राणवल्लभा पत्नी पार्वती को अपने आगे बैठाकर चारों वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सामवेद के मंत्रों द्वारा हवन कराकर उसमें आहुतियां दीं। उस समय पार्वती के भाई मैनाक ने उनके हाथों में खीलें दीं फिर लोक मर्यादा के अनुसार भगवान शिव और देवी पार्वती अग्नि के फेरे लेने लगे।
उस समय मैं शिवजी की माया से मोहित हो गया। मेरी दृष्टि जैसे ही परम सुंदर दिव्यांगना देवी पार्वती के शुभ चरणों पर पड़ी मैं काम से पीड़ित हो गया। मुझे मन में बड़ी लज्जा का अनुभव हुआ। किसी की दृष्टि मेरे इन भावों पर पड़ जाए इस हेतु मैंने अपने मन के भावों को दबा लिया परंतु भगवान शिव तो सर्वव्यापी और सर्वेश्वर हैं। भला उनसे कुछ कैसे छिप सकता है। उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ गई और उन्हें मेरे मन में उत्पन्न हुए बुरे विचार की जानकारी हो गई। भगवान शिव के क्रोध की कोई सीमा न रही । कुपित होकर शिवजी मुझे मारने हेतु आगे बढ़ने लगे। उन्हें क्रोधित देखकर मैं भय से कांपने लगा तथा वहां उपस्थित अन्य देवता भी डर गए।
भगवान शिव के क्रोध की शांति के लिए सभी देवता एक स्वर में शिवजी से बोले ;- हे सदाशिव! आप दयालु और करुणानिधान हैं। आप तो सदा ही अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें उनकी इच्छित वस्तु प्रदान करते हैं। भगवन्, आप तो सत्चित् और आनंद स्वरूप हैं। प्रसन्न होकर मुक्ति पाने की इच्छा से मुनिजन आपके चरण कमलों का आश्रय ग्रहण करते हैं। हे परमेश्वर! भला आपके तत्व को कौन जान सकता है। भगवन्, अपनी गलती के लिए ब्रह्माजी क्षमाप्रार्थी हैं। आप तो भक्तों के सदा वश में है। हम सब भक्तजन आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप ब्रह्माजी की इस भूल को क्षमा कर दें और उन्हें निर्भय कर दें।
इस प्रकार देवताओं द्वारा की गई स्तुति और क्षमा प्रार्थना के फलस्वरूप भगवान शिव ने ब्रह्माजी को निर्भय कर दिया। नारद, तब मैंने अपने उन भावों को सख्ती के साथ मन में ही दबा दिया। फिर भी उन भावों के जन्म से हजारों बालखिल्य ऋषियों की उत्पत्ति हो गई, जो बड़े तेजस्वी थे। यह जानकर कि कहीं उन ऋषियों को देख शिवजी क्रोधित न हो जाएं, तुमने उन्हें गंधमादन पर्वत पर जाने का आदेश दे दिया। बालखिल्य ऋषियों को तुमने सूर्य भगवान की आराधना और तपस्या करने का आदेश प्रदान किया। तब वे बालखिल्य ऋषि तुरंत मुझे और भगवान शिव को प्रणाम करके गंधमादन पर्वत पर चले गए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【तृतीय खण्ड】
पचासवाँ अध्याय
"विवाह संपन्न और शिवजी से विनोद"
ब्रह्माजी बोले ;– हे नारद! उसके बाद मैंने भगवान शिव की आज्ञा पाकर शिव-पार्वती विवाह के शेष कार्यों को पूरा कराया। सर्वप्रथम शिवजी व पार्वती जी के मस्तक का अभिषेक हुआ। तत्पश्चात वहां उपस्थित ब्राह्मणों ने दोनों को ध्रुव का दर्शन कराया और उसके बाद हृदय छूना और स्वस्ति पाठ आदि कार्यों को पूरा कराया। यह सब कार्य पूरे होने के बाद भगवान शिव ने देवी पार्वती की मांग में सौभाग्य और सुहाग की निशानी माने जाने वाला सिंदूर भरा। मांग में सिंदूर भरते ही देवी पार्वती का रूप लाखों कमलदलों के समान खिल उठा। उनकी शोभा देखते ही बनती थी। सिंदूर से उनके सौंदर्य में अभिवृद्धि हो गई थी। इसके पश्चात शिव-पार्वती को एक साथ एक सुयोग्य आसन पर बिठाया गया और वहां उन्होंने अन्नप्राशन किया।
इस प्रकार इस उत्तम विवाह के सभी कार्य विधि-विधान से संपन्न हो गए। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर, इस विवाह को सानंद संपन्न कराने हेतु मुझ ब्रह्मा को आचार्य मानकर पूर्णपात्र दान किया। फिर गर्ग मुनि को गोदान किया तथा वैवाहिक कार्य पूरा करने में सहयोग करने वाले सब ऋषि-मुनियों को सौ-सौ स्वर्ण मुद्राएं और अनेक बहुमूल्य रत्न दान में दिए। तब सब ओर आनंद का वातावरण था। सभी बहुत प्रसन्न थे और शिव-पार्वती की जय-जयकार कर रहे थे। तब मैं श्रीहरि और अन्य ऋषि-मुनि सभी देवताओं सहित शैलराज की आज्ञा लेकर जनवासे में वापिस आ गए।
हिमालय नगर की स्त्रियां, पुरनारियां और पार्वती की सखियां भगवान शिव और पार्वती को लेकर कोहबर में गईं और वहां उनसे लोकोचार रीतियां कराने के उपरांत उन्हें कौतुकागार में ले जाकर अन्य रीति-रिवाजों और रस्मों को सानंद संपन्न कराया। उसके पश्चात उन दोनों को उत्साहपूर्वक केलिग्रह में ले जाया गया। केलिग्रह में भगवान शिव और पार्वती के गंठबंधन को खोला गया। उस समय शिव-पार्वती की शोभा देखने योग्य थी। उस समय उनकी अनुपम मनोहारी छवि देखने के लिए सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गंगा, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुंधती, अहिल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, पृथ्वी, संज्ञा, शतरूपा तथा रति नाम की सोलह दिव्य देवांगनाएं, देवकन्याएं, नागकन्याएं और मुनि कन्याएं वहां पधारी और भगवान शिव से हास्य-विनोद करने लगीं।
सरस्वती बोलीं ;– भगवान शिव ! अब तो आपने चंद्रमुखी पार्वती को पत्नी रूप में प्राप्त कर लिया है। अब इनके चंद्रमुख को देख-देखकर अपने हृदय को शीतल करो।
लक्ष्मीजी बोलीं ;- हे देवों के देव! अब लज्जा किसलिए? अपनी प्राणवल्लभा पत्नी को अपने हृदय से लगाओ। जिसके बिछड़ने के कारण आप दुखी होकर इधर-उधर भटकते रहे। उस प्राणप्रिया के मिल जाने पर कैसी लज्जा ?
तो उधर सावित्री बोलीं ;- अब तो पार्वती जी को भोजन कराकर ही भोजन होगा और पार्वती को कपूर सुगंधयुक्त तांबूल भी अर्पित करना होगा।
तब जान्हवी बोलीं कि ;- हे त्रिलोक के स्वामी! स्वर्ण के समान सुंदर पार्वती जी के केश धोना एवं शृंगार करना भी आपका कर्तव्य है।
इस पर शची कहने लगीं कि ;- हे सदाशिव ! जिन पार्वती को पाने के लिए आप सदा आतुर थे तथा जिनके वियोग के दिन आपने विलाप कर-कर बिताए हैं, आज वही पार्वती जब आपकी पत्नी बनकर आपके साथ विराजमान हैं, तो फिर काहे का संकोच? क्यों आप पार्वती को अपने हृदय से नहीं लगा रहे हैं? देवी अरुंधती बोलीं - इस सती सुंदरी को मैंने आपको दिया है। अब आप इसे अपने पास रखें और उसके सुख दुख का खयाल करें।
देवी अहिल्या बोलीं ;– भगवन्! आप तो सबके ईश्वर हो। इस पूरे संसार के स्वामी हो। आपके परमब्रह्म स्वरूप को कोई नकार नहीं सकता। आप निर्गुण निराकार हैं परंतु आज सब देवताओं ने मिलकर आपको भी दास बना दिया है। प्रभो ! अब आप भी अपनी प्राणवल्लभा पार्वती के अधीन हो गए हैं। यह सुनकर वहां खड़ी तुलसी कहने लगीं ;— आपने तो कामदेव को भस्म करके पार्वती का त्याग कर दिया था, फिर आपने क्यों आज उनसे विवाह कर लिया है? इस प्रकार उन देवांगनाओं की हंसी-मजाक चल रही थी और वे भगवान शिव से ऐसी ही बातें करके बीच-बीच में जोर-जोर से हंसती तो कभी खिलखिलाकर रह जाती ।
इस पर स्वाहा ने कहा कि ;- हे सदाशिव ! इस प्रकार हम सबकी हंसी-ठिठोली सुनकर ने क्रोधित मत हो जाइएगा। विवाह के समय तो कन्याएं व स्त्रियां ऐसा ही हंसी-मजाक करती हैं।
तब वसुंधरा ने कहा ;- हे देवाधिदेव! आप तो भावों के ज्ञाता हैं। आप तो जानते ही हैं कि काम से पीड़ित स्त्रियां भोग के बिना प्रसन्न नहीं होतीं। प्रभु! अब तो पार्वती की प्रसन्नता के लिए कार्य करो। अब तो पार्वती आपकी पत्नी हो गई हैं। उन्हें खुश रखना आपका परम कर्तव्य है।
इस प्रकार स्त्रियों के विनोदपूर्ण वचन सुनते हुए भगवान शिव चुप थे परंतु जब स्त्रियां चुप न हुईं और इसी प्रकार उन्हें लक्ष्य बनाकर तरह-तरह की हंसी की बातें करती रहीं, तब भगवान शिव ने कहा- हे देवियो! आप लोग तो जगत की माताएं हैं। माता होते हुए पुत्र के सामने इस प्रकार के चंचल तथा निर्लज्ज वचन क्यों कह रही हैं? तब भगवान शिव के ये वचन सुनकर सभी स्त्रियां शरमा कर वहां से भाग गईं।