।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【पंचम खण्ड】
सोलहवाँ अध्याय
"श्रीविष्णु का लक्ष्मी को जलंधर का वध न करने का वचन देना"
सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी ! इस प्रकार जब देवगुरु बृहस्पति ने देवताओं को युद्ध रोक देने के विषय में कहा तो सभी ने गुरु की आज्ञा का पालन किया और युद्ध रुक गया परंतु जलंधर का क्रोध शांत नहीं हुआ । वह इंद्र को ढूंढ़ता-ढूंढ़ता स्वर्ग लोक आ पहुंचा। जलंधर को वहां आता देखकर इंद्र व अन्य देवता अपने प्राणों की रक्षा करने हेतु वहां से भागकर भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में बैकुण्ठ लोक जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान विष्णु को प्रणाम किया और उनकी भक्ति भाव से स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने भगवान विष्णु से कहा- हे कृपानिधान! हम आपकी शरण में आए हैं, हमारी रक्षा कीजिए । तब देवताओं ने विष्णुजी को जलंधर के विषय में सबकुछ बता दिया।
समस्त वृत्तांत सुनकर श्रीहरि विष्णु ने देवताओं से कहा कि वे अपने भय का त्याग कर दें। उन्होंने उनकी प्राण रक्षा करने का आश्वासन दिया और कहा कि मैं जलंधर का वध कर तुम्हें उससे मुक्ति दिलाऊंगा। यह कहकर भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर सवार होकर चलने लगे। यह देखकर देवी लक्ष्मी के नेत्रों में आंसू आ गए और वे बोलीं- हे स्वामी! जलंधर समुद्र देव का जातक पुत्र होने के कारण मेरा भाई है। आप मेरे स्वामी होकर मेरे भाई को क्यों मारना चाहते हैं? यदि मैं आपको प्रिय हूं तो आप मेरे भाई का वध नहीं करेंगे।
अपनी प्राणवल्लभा लक्ष्मी जी के वचन सुनकर,,
विष्णुजी बोले ;- हे देवी! यदि तुम ऐसा चाहती हो तो ऐसा ही होगा परंतु तुम तो जानती ही हो कि पापी का नाश अवश्य होता है। तुम्हारा भाई जलंधर अधर्म के मार्ग पर चल रहा है और देवताओं को कष्ट पहुंचा रहा है। फिर भी मैं उसका वध अपने हाथों से नहीं करूंगा परंतु इस समय तो मुझे युद्ध में जाना होगा। यह कहकर भगवान विष्णु युद्धस्थल की ओर चल दिए।
भगवान विष्णु उस स्थान पर पहुंचे, जहां असुरराज जलंधर था। भगवान विष्णु को आया देखकर देवताओं में हर्ष और ऊर्जा का संचार हुआ। देवसेना अत्यंत रोमांचित हो गई। सभी देवताओं ने हाथ जोड़कर श्रीहरि को प्रणाम किया। भगवान विष्णु का मुखमंडल अद्भुत आभा से प्रकाशित हो रहा था। उनके दिव्य तेज के सामने दैत्य और दानवों का खड़े रह पाना मुश्किल हो रहा था। श्रीहरि विष्णु के वाहन गरुड़ के पंखों से निकलने वाली प्रबल वायु: ने वहां पर आंधी-सी ला दी थी। इस आंधी में दैत्य इस प्रकार घूमने लगे, जिस प्रकार आसमान में बादल घूमते हैं। अपनी सेना को ऐसी विकट परिस्थिति में देखकर जलंधर अत्यंत क्रोधित हो उठा।
【श्रीरुद्र संहिता】
【पंचम खण्ड】
सत्रहवाँ अध्याय
"श्रीविष्णु-जलंधर युद्ध"
सनत्कुमार जी बोले ;– हे महर्षे! दैत्यों के तेज प्रहारों से व्याकुल देवता बचने के लिए जब इधर-उधर भाग रहे थे, तब भगवान विष्णु के युद्धस्थल में आने से देवताओं को थोड़ा साहस बंधा। उनके वाहन गरुड़ के पंखों के फड़फड़ाने से आए तूफान में दैत्य अपनी सुध-बुध खोकर इधर-उधर उड़ने लगे। पर जल्दी ही उन्होंने अपने को संभाल लिया। जलंधर ने जब अपनी दैत्य सेना को इस प्रकार तितर-बितर होते देखा तो क्रोधित होकर उसने भगवान श्रीहरि विष्णु पर आक्रमण कर दिया। श्रीहरि विष्णु ने अपने आपको उसके प्रहार से बचा लिया।
जब भगवान श्रीहरि ने देखा कि देव सेना पुनः आतंकित हो रही है और उनके सेनापति देवराज इंद्र भी भयग्रस्त हैं। तब विष्णुजी ने अपना शार्ङ्ग नामक धनुष उठा लिया और बड़े जोर से धनुष से टंकार की । फिर उन्होंने देखते ही देखते पल भर में हजारों दैत्यों के सिर काट दिए। यह देखकर दैत्यराज जलंधर क्रोधावेश में उन पर झपटा।
तब श्रीहरि ने उसकी ध्वजा, छत्र और बाण काट दिए तथा उसे अपनी गदा से उठाकर गरुड़ के सिर पर दे मारा। गरुड़ से टकराकर नीचे गिरते ही जलंधर के होंठ फड़कने लगे। तब दोनों ही अपने-अपने वाहनों से भीषण बाणों की वर्षा करने लगे। विष्णुजी ने जलंधर की गदा अपने बाणों से काट दी। फिर उसे बाणों से बांधना शुरू कर दिया परंतु जलंधर भी महावीर और पराक्रमी था। वह भी कहां मानने वाला था। उसने भी भीषण बाणवर्षा शुरू कर दी और विष्णुजी के धनुष को तोड़ दिया। तब उन्होंने गदा उठा ली और उससे जलंधर पर प्रहार किया परंतु उसका महादैत्य जलंधर पर कोई असर नहीं हुआ। तब उसने अग्नि के समान धधकते त्रिशूल को विष्णुजी पर छोड़ दिया। उस त्रिशूल से बचने के लिए विष्णुजी ने भगवान शिव का स्मरण करते हुए नंदक त्रिशूल चलाकर जलंधर के वार को काट दिया।
तत्पश्चात विष्णु भगवान और जलंधर दोनों धरती पर कूद पड़े और फिर उनके बीच मल्ल युद्ध होने लगा। जलंधर ने भगवान विष्णु की छाती पर बड़े जोर का मुक्का मारा। तब विष्णुजी ने भी पलटकर उस पर मुक्के का प्रहार किया। इस प्रकार दोनों में बाहुयुद्ध होने लगा। उन दोनों के बीच बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। दोनों ही वीर और बलशाली थे। न भगवान विष्णु कम थे और न ही जलंधर। सभी देवता और दानव उनके बीच के आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। युद्ध समाप्त न होते देख भगवान विष्णु ने कहा युद्ध को हे दैत्यराज जलंधर ! तुम निश्चय ही महावीर हो । तुम्हारा पराक्रम प्रशंसनीय है। तुम इतने भयानक आयुधों से भी भयभीत नहीं हुए और निरंतर युद्ध कर रहे हो। मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम जो चाहे वरदान मांग सकते हो। मैं निश्चय ही तुम्हारी मनोकामना पूरी करूंगा।
भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर जलंधर बहुत हर्षित हुआ और बोला ;- हे विष्णो! आप मेरी बहन लक्ष्मी के पति हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो अपनी पत्नी और कुटुंब के लोगों के साथ पधारकर मेरे घर को पवित्र कीजिए। तब भगवान श्रीहरि ने 'तथास्तु' कहकर उसे उसका इच्छित वर प्रदान किया।
अपने दिए गए वर के अनुसार श्रीहरि विष्णु देवी लक्ष्मी व अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर जलंधर का आतिथ्य ग्रहण करने के लिए उसके घर पहुंचे। जलंधर उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सब देवताओं का बहुत आदर-सत्कार किया और उनकी वहीं पर स्थापना कर दी। विष्णु परिवार के स्थापित हो जाने के बाद जलंधर निर्भय होकर श्रीविष्णु के अनुग्रह से त्रिभुवन पर शासन करने लगा। उसके राज्य में सभी सुखी थे और धर्म-कर्म का पालन करते थे।
【श्रीरुद्र संहिता】
【पंचम खण्ड】
अठारहवाँ अध्याय
"नारद जी का कपट जाल"
सनत्कुमार जी बोले ;— हे मुनिश्वर ! जब जलंधर इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य कर रहा था तो देवता बड़े दुखी थे। उन्होंने अपने मन में देवाधिदेव भगवान शिव का स्मरण करना शुरू कर दिया और उनकी स्तुति करने लगे । एक दिन नारद जी भगवान शिव की प्रेरणा से इंद्रलोक पहुंचे। नारद जी को वहां आया देखकर सभी देवताओं सहित देवराज ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। तब नारद जी को उन्होंने सभी बातों से अवगत कराया और उनसे प्रार्थना की कि वे उनके दुखों को दूर करने में मदद करें। यह प्रार्थना सुनकर नारद जी बोले कि देवराज मैं सबकुछ जान गया हूं। मैं अवश्य ही तुम्हारे कार्य को पूर्ण करने का प्रयास करूंगा। अभी तो मैं दैत्यराज जलंधर से मिलना चाहता हूं। इसलिए उसके राजमहल में जा रहा हूं। यह कहकर नारद जी जलंधर के राज्य की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर नारद जी ने जलंधर की राजसभा में प्रवेश किया। उन्हें देखकर दैत्यों के स्वामी जलंधर ने उन्हें सिंहासन पर बैठाया, उनके चरणों को धोया और पूछा- हे ब्रह्मन् ! आप कहां से आ रहे हैं? मैं धन्य हुआ जो आपने मेरे घर को पवित्र किया है। मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं आपकी क्या सेवा करूं?
दैत्यराज जलंधर के ऐसे वचन सुनकर नारद जी बोले ;- हे दैत्यराज जलंधर! आप धन्य हैं। निश्चय ही आप पर सभी की कृपा है। इस लोक में आप सब सुखों को भोग रहे हैं। जलंधर ! अभी कुछ समय पूर्व मैं ऐसे ही घूमते हुए कैलाश पर्वत पर गया था। वहां कैलाश पर मैंने सैकड़ों कामधेनुओं को हजारों योजन में फैले कल्पतरु के वन में घूमते हुए देखा। वह कल्पतरु वन दिव्य, अद्भुत और सोने के समान है। वहीं पर मैंने भगवान शिव और उनकी प्राणवल्लभा देवी पार्वती को भी देखा। भगवान शिव सर्वांग सुंदर, गौरवर्णी तीन नेत्रों वाले हैं और अपने मस्तक पर चंद्रमा धारण किए हुए हैं। असुरराज! इस पूरे त्रिलोक में उनके समान कोई भी नहीं है। उनके समान समृद्धिशाली और ऐश्वर्य संपन्न कोई भी नहीं है। तभी मुझे तुम्हारी धन-संपत्ति का भी ध्यान आया। इसलिए मैं तुम्हारे पास आ गया।
नारद जी के वचनों को सुनकर जलंधर अत्यंत गर्वित महसूस करने लगा और उसने महर्षि नारद को अपने धन के खजाने और सभी संचित अमूल्य निधियां दिखा दीं।
जलंधर की धन संपदा देखकर नारद जी जलंधर की प्रशंसा करते हुए बोले ;- 'हे दैत्येंद्र! आप अवश्य ही इस त्रिलोक के स्वामी होने के योग्य हैं। आपके पास ऐरावत हाथी है, उच्चैः श्रवा घोड़ा भी आपके पास है। कल्प वृक्ष, धन के देवता कुबेर के खजाने, रत्नों, हीरों, मणियों के अंबार आपके पास हैं। ब्रह्माजी का दिव्य विमान भी आपने ले लिया है। स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की सभी ऐश्वर्यपूर्ण वस्तुएं और अनमोल खजानों का आपके पास अंबार है। आपका धन-वैभव देखकर सभी आपसे ईर्ष्या कर सकते हैं परंतु दैत्यराज आपके पास अभी भी स्त्री-रत्न की कमी है। बिना दिव्य स्त्री के पुरुष अधूरा है। उसका स्वरूप तभी पूर्ण होता है, जब वह किसी स्त्री को ग्रहण करता है। इसलिए असुरराज आप कोई परम सुंदरी ग्रहण कर, इस कमी को यथाशीघ्र पूरा करें।
देवर्षि नारद की चालभरी बातों से भला कोई कैसे बच सकता है। उन्होंने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ। जलंधर ने नारद जी के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रश्न किया कि महर्षि आपके द्वारा वर्णित ऐसी सुंदर दिव्य स्त्री मुझे कहां मिलेगी, जो रत्नों से भी श्रेष्ठ हो । यदि आप इस प्रकार के स्त्री- रत्न के बारे में मुझे बता दें, तो मैं उस रत्न को अवश्य ही लाकर अपने राजभवन की शोभा बढ़ाऊंगा।
जलंधर की बातें सुनकर देवर्षि नारद ने कहा ;- हे दैत्येंद्र ! ऐसा अनमोल स्त्री रत्न तो त्रिलोकीनाथ महान योगी भगवान शिव के पास है। वह है उनकी परम सुंदर पत्नी देवी पार्वती। वे सर्वांग सुंदर होने के साथ-साथ सर्वगुण संपन्न भी हैं। संसार की कोई भी स्त्री उनकी बराबरी नहीं कर सकती। उनका मनोहारी रूप पलभर में सबको मोहित कर सकता है। वास्तव में उनके समान कोई नहीं है। यह कहकर देवर्षि नारद ने जलंधर से आज्ञा ली और आकाश मार्ग से वापस लौट गए।
【श्रीरुद्र संहिता】
【पंचम खण्ड】
उन्नीसवाँ अध्याय
"दूत-संवाद"
व्यास जी बोले ;- हे सनत्कुमार जी ! जब देवर्षि नारद इस प्रकार दैत्यराज जलंधर को देवी पार्वती की सुंदरता और भगवान शिव के परम ऐश्वर्य और समृद्धि के बारे में बता आए तब वहां क्या हुआ? दैत्यराज ने क्या किया?
व्यास जी के ऐसे प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुनि! नारद जी के वहां से चले जाने पर असुरराज जलंधर ने अपने राहू नामक दूत को बुलाया और उसे भगवान शिव के निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाने की आज्ञा दी।
जलंधर ने कहा ;- राहू, उस पर्वत पर एक योगी रहता है। उस जटाधारी योगी की पत्नी सर्वांग सुंदरी है। तुम्हें मेरे लिए उसकी पत्नी को लाना अपने स्वामी जलंधर की आज्ञा पाकर वह दूत भगवान शिव के स्थान कैलाश पर्वत पर गया। वहां नंदी ने उस राहू नामक दूत को अंदर जाने से रोका परंतु वह सीधा अंदर चला गया। वहां कैलाशपति भगवान शिव के सामने उसने अपने स्वामी दैत्यराज जलंधर का संदेश शिवजी को सुना दिया। जैसे ही असुरराज जलंधर के दूत राहू ने यह संदेश त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को सुनाया, उसी समय शिवजी के सामने की धरती फट गई और उसमें से एक बड़ा भयानक गर्जना करता हुआ पुरुष प्रकट हुआ। वह पुरुष अत्यंत बलशाली और वीर जान पड़ता था। उसका मुख सिंह के समान था और ऐसा लगता था कि सिंह मानव का रूप लेकर साक्षात सामने आकर खड़ा हो गया है। वह नृसिंह रूपी पुरुष तुरंत राहू को खाने के लिए झपटा। यह देखकर राहू अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए दौड़ा परंतु असफल रहा। उसने राहू को कस कर पकड़ लिया।
जब राहू ने देखा कि अब बचने का कोई रास्ता नहीं बचा है, तब राहू भगवान शिव से यह प्रार्थना करने लगा कि वे उसके प्राणों की रक्षा करें। वह बोला भगवन्! मैं तो असुरराज जलंधर का दूत हूं। मैंने तो सिर्फ वही कहा है, जो मेरे स्वामी की आज्ञा थी। हे कृपानिधान! मेरी भूल के लिए मुझे क्षमा करें। राहू के वचन सुनकर करुणानिधान भगवान शिव ने नृसिंह रूपी पुरुष को आज्ञा दी कि वह राहू को छोड़ दे। अपने प्रभु की आज्ञा पाकर उसने राहू को छोड़ दिया।
जब उसने राहू को छोड़ दिया तब वह शिवजी से बोला कि भगवन्! आपकी आज्ञा मानकर मैंने इस दुष्ट को छोड़ दिया है परंतु हे प्रभु! मैं बहुत भूखा हूं। अब मैं क्या करूं? क्या खाकर अपनी भूख शांत करूं? तब भगवान शिव ने उससे कहा कि अपने हाथ-पैरों के मांस को खाकर अपनी भूख शांत करो। शिवजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर उसने अपने हाथों और पैरों का मांस खा लिया। अब सिर्फ उसका सिर ही बचा था। यह देखकर भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो गए और बोले, तुमने मेरी आज्ञा का पालन करके मुझे प्रसन्न किया है । तुम वाकई मेरे प्रिय हो। आज से तुम मेरे भक्तों भी द्वारा पूज्य होगे। जो भी मनुष्य मेरी पूजा करेगा वह तुम्हारी भी आराधना अवश्य करेगा। जो तुम्हारी पूजा नहीं करेगा उस भक्त पर मेरी कृपादृष्टि नहीं होगी। उस दिन से वह कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का प्रिय गण बनकर रहने लगा और संसार में 'स्वकीर्तिमुख' के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
【श्रीरुद्र संहिता】
【पंचम खण्ड】
बीसवाँ अध्याय
"शिवगणों का असुरों से युद्ध"
व्यास जी बोले ;— हे सनत्कुमार जी! असुरराज जलंधर के राहू नामक दूत का क्या हुआ? जब भगवान शिव ने राहू को अभयदान दे दिया, फिर राहू कैलाश पर्वत से कहां गया और उसने क्या किया? इस विषय में मुझे बताइए ।
महर्षि व्यास के इन वचनों को सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे महर्षि ! जब राहू नामक दूत को शिवजी ने उस पुरुष के हाथों से मुक्त करा दिया, तब राहू वहां से तुरंत भागकर अपने स्वामी दैत्यराज जलंधर के पास गया और वहां उसने अपने स्वामी को सभी बातें बता दीं, जो वहां हुई थीं। उन सारी बातों को जानकर असुरराज जलंधर का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया।
जलंधर ने अपने सेनापति और अन्य अधिकारियों को बुलाकर अपनी दैत्य सेना को युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा प्रदान की। अपने स्वामी की आज्ञा पाकर कालनेमि, शुंभ निशुंभ आदि महावीर पराक्रमी दैत्य युद्ध के लिए तैयारी करने लगे । जलंधर की विशाल चतुरंगिणी दैत्य सेना भगवान शिव से युद्ध करने के लिए निकल पड़ी। उस सेना के साथ ही दैत्यगुरु शुक्राचार्य और राहू भी थे।
इधर, जब देवताओं को ज्ञात हुआ कि जलंधर अपनी सेना को साथ लेकर भगवान शिव से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा है तो देवराज इंद्र शिवजी को अवगत कराने के लिए कैलाश पर्वत पर गए और वहां उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को सारी बातें बता दीं। इंद्र ने भगवान विष्णु के विषय में भी उन्हें बताया कि भगवान विष्णु भी अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी के साथ असुरराज जलंधर के वश में हैं और उसके घर में निवास करते हैं। इसी कारण हम सब देवता विवश हैं। हमें न चाहते हुए भी जलंधर के अधीन होना पड़ा है। भगवन्! आप भक्तवत्सल हैं। आप अपने भक्तों की रक्षा कर हमें जलंधर से मुक्ति दिलाएं। उसे मारकर हमारे प्राणों की रक्षा करें।
सारी बातें ज्ञात हो जाने पर भगवान शिव ने सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। प्रभु के स्मरण करते ही विष्णुजी वहां तुरंत प्रकट हो गए। उन्हें देखकर शिवजी ने उनसे पूछा- हे विष्णो! तुम्हें मैंने दैत्येंद्र जलंधर का वध करने के लिए भेजा था, फिर तुमने उसका वध क्यों नहीं किया? आप उसके घर में क्यों निवास कर रहे हैं ?
अपने आराध्य भगवान शिव के ये वचन सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और विनम्रतापूर्वक बोले ;- हे करुणानिधान भगवान शिव! मैं जानता हूं कि आपने मुझे दैत्यराज जलंधर का संहार करने की आज्ञा दी थी, परंतु मैं उसे नहीं मार सका । इसलिए आपसे क्षमा याचना करता हूं। मेरी गलती क्षमा करें। प्रभु! मैंने जलंधर का वध इसलिए नहीं किया, क्योंकि जलंधर मेरी प्राणवल्लभा देवी लक्ष्मी का भ्राता है और उसमें आपका अंश भी विद्यमान है। इसलिए उस दैत्य की वीरता से प्रसन्न होकर मैं उसके घर में निवास करता हूं । भगवान विष्णु के वचनों को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव हंसने लगे ।
फिर बोले ;- देवताओ! तुम सभी सोच और चिंताओं को त्याग दो। तुम्हारी रक्षा के लिए मैं अवश्य ही जलंधर का संहार करूंगा। यह सुनकर सभी देवता निश्चिंत हो गए।
इसी समय जलंधर अपनी विशाल सेना साथ लेकर कैलाश पर्वत के निकट पहुंच गया। उसने कैलाश पर्वत को चारों ओर से घेर लिया। उस समय बड़ा कोलाहल होने लगा। यह शोर सुनकर भगवान शिव को क्रोध आ गया। तब उन्होंने अपने गणों को आज्ञा दी कि वे जाकर राक्षसों से युद्ध करें। अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके गण युद्ध करने चले गए। शिवगणों और जलंधर की दैत्यसेना में बड़ा भीषण युद्ध होने लगा। शिवगण बड़ी वीरता से दैत्यों से भिड़ गए। उन्होंने कई दैत्यों को पल भर में ही मौत के घाट उतार दिया और सैकड़ों को घायल कर दिया। परंतु दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से सभी मृत दानवों को पुनः जीवन दान दे रहे थे और वे उठकर पुनः युद्ध करने लगते थे।
जब दैत्यसेना किसी भी प्रकार कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी, तब शिवगण व्याकुल होने लगे। तब शिवगणों ने भगवान शिव के पास जाकर उन्हें इसकी सूचना दी। जब शिवजी को यह बात ज्ञात हुई कि यह सब शुक्राचार्य कर रहे हैं तो वे क्रोधित हो उठे। उस समय भगवान शिव के मुख से एक भयंकर ज्वाला कृत्या के रूप में प्रकट हुई। उसका रूप अत्यंत रौद्र और भयानक था । वह वहां से सीधे युद्ध भूमि में गई और दैत्यों को पकड़ पकड़कर खाने लगी। इसी प्रकार भ्रमण करते हुए कृत्या शुक्राचार्य के निकट पहुंची और उन्हें वहां से गायब कर दिया। जब अपने परम सहायक गुरु शुक्राचार्य उन्हें वहां न दिखाई दिए तथा हजारों वीर मारे गए या घायल हो गए, तब दैत्य सेना का मनोबल टूटने लगा। दैत्य सेना युद्धभूमि छोड़कर भागने लगी। जलंधर के कालनेमी, शुंभ, निशुंभ आदि वीर दैत्य फिर भी पूरी ताकत से युद्ध करते रहे। इधर, भगवान शिव की सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले स्वामी कार्तिकेय और गणेश जी भी पूरे मनोयोग से दैत्य सेना को पछाड़ने के लिए युद्ध कर रहे थे।