।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
【श्रीरुद्र संहिता】
【चतुर्थ खण्ड】
सोलहवाँ अध्याय
"गणेशजी का शिरोच्छेदन"
ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार जब सभी शिवगण, देवता और भूत-प्रेत उस बालक द्वारा परास्त हो गए तो स्वयं भगवान शिव उस बालक को दंड देने के लिए चल दिए। वहां गणेश ने अपनी माता के चरणों का स्मरण करके भगवान शिव से युद्ध करना आरंभ किया। एक छोटे से बालक को इस प्रकार निर्भयतापूर्वक युद्ध करते देखकर भगवान शिव आश्चर्यचकित रह गए। इतना वीर, पराक्रमी और साहसी बालक देखकर शिवजी को एक पल अच्छा लगा, परंतु तभी अगले पल उन्हें उस बालक की धृष्टता का स्मरण हो आया। उस बालक ने उनके प्रिय भक्तों और गणों सहित देवराज इंद्र व मुझे भी प्रताड़ित किया था । भगवान शिव क्रोध के वशीभूत होकर गणेश से युद्ध करने लगे।
उन्होंने अपने हाथ में धनुष उठा लिया। भगवान शिव को इस प्रकार अपने निकट आते देखकर गणेश ने अपनी माता पार्वती का स्मरण करके भगवान शिव पर अपनी शक्ति से प्रहार कर दिया। गणेश के प्रहार से शिवजी के हाथ का धनुष टूटकर गिर गया। तब उन्होंने पिनाक उठा लिया परंतु गणेश ने उसे भी गिरा दिया। यह देखकर शिवजी का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने त्रिशूल उठा लिया। अब तो गणेश और त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के बीच अत्यंत भयानक युद्ध छिड़ गया।
भगवान शिव तो सर्वेश्वर हैं। सब देवताओं में श्रेष्ठ और लीलाधारी हैं। उनकी माया को समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। वे महान वीर और पराक्रमी हैं। उनकी शक्ति को ललकारना स्वयं अपनी मृत्यु को बुलावा देने जैसा है परंतु गणेश भी यह न समझ सके। अपनी माता का आशीर्वाद पाकर गणेश ने अपने को अजेय जानकर पूरे पराक्रम से युद्ध किया। दोनों में भीषण युद्ध चलता रहा। सभी देवताओं और शिवगणों के साथ मैं भी उनका वह युद्ध विस्मित होकर देखता रहा। जब गणेश किसी भी तरह से अपने हठ से पीछे हटने को तैयार न हुए, तो भगवान शिव के क्रोध की सारी सीमाएं टूट गईं और उन्होंने अपने त्रिशूल से श्री गणेश का सिर काट दिया।
【श्रीरुद्र संहिता】
【चतुर्थ खण्ड】
सत्रहवाँ अध्याय
"पार्वती का क्रोध एवं गणेश को जीवनदान"
नारद जी बोले ;– हे ब्रह्माजी! जब भगवान शिव ने क्रोधित होकर देवी पार्वती के प्रिय पुत्र गणेश का सिर काट दिया, तब फिर क्या हुआ? जब देवी पार्वती को गणेश की मृत्यु की सूचना मिली तो उन्होंने क्या किया ? भगवन्! मुझ पर कृपा कर मुझे आगे के वृत्तांत के बारे बताइए। नारद जी के इस प्रकार प्रश्न करने पर,,
ब्रह्माजी मुस्कुराए और बोले ;- नारद! जैसे ही भगवान शिव ने क्रोधवश उस बालक का सिर काटकर उसे मौत के घाट उतारा, वैसे ही वहां खड़े सभी शिवगणों की प्रसन्नता देखते ही बनती थी। उन सभी ने खुश होकर गाजे-बाजे बजाए और वहां बहुत बड़ा उत्सव होने लगा। सब मस्त होकर नाचने लगे। भगवान शिव की चारों ओर जय-जयकार होने लगी।
दूसरी ओर जब पार्वती स्नान कर चुकीं तो उन्होंने अपनी सखी को बाहर भेजा कि वह गणेश को अंदर बुला ले। और जब वह बाहर गई तो उसने वहां का जो हाल देखा उसे देखकर भयभीत हो गई। गणेश का सिर कटा हुआ अलग पड़ा था और धड़ अलग सब देवता और शिवगण प्रसन्न होकर नृत्य कर रहे थे। यह दृश्य देखकर पार्वती की वह सखी भागी-भागी भीतर गई और जाकर पार्वती को इन सब बातों से अवगत कराया।
अपने पुत्र गणेश की मृत्यु का समाचार पाते ही देवी पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गईं। उन्होंने रोना आरंभ कर दिया। रोते-बिलखते वे कहतीं - हाय मैं क्या करूं? कहां जाऊं? मैं तो अपने पुत्र की रक्षा भी न कर सकी। सब देवताओं और शिवगणों ने मिलकर मेरे प्यारे पुत्र को मौत के घाट उतार दिया। अब मैं भी अपने पुत्र का संहार करने वालों का विनाश करके रहूंगी। मैं प्रलय मचा दूंगी। यह कहकर उन्होंने सौ हजार शक्तियों की रचना कर दी और देखते ही देखते वहां मां जगदंबा की विशाल सेना इकट्ठी हो गई। वे शक्तियां प्रकट होते ही हाथ जोड़कर पार्वती को प्रणाम करते हुए बोलीं- हे माता! हे देवी! हम सबको इस प्रकार प्रकट करने का क्या कारण है? हमें आज्ञा दीजिए कि हम क्या करें?
तब क्रोध से तमतमाती देवी पार्वती बोलीं ;- तुम सब जाकर मेरे पुत्र का वध करने वालों का नाश कर दो। तुम देवसेना में प्रलय मचा दो। आज्ञा पाते ही देवी पार्वती की वह शक्तिशाली सेना वहां से चली गई। बाहर जाकर उसने देवताओं और शिवगणों पर आक्रमण कर दिया। वे क्रोधित देवियां किन्हीं देवताओं को पकड़-पकड़कर अपने मुंह में डाल लेतीं तो किसी पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करती। इस प्रकार उन्होंने वहां बहुत आतंक मचाया। वहां चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। लोग अपनी जान बचाने के लिए जहां-तहां भागने लगे। यह नजारा देखकर भगवान शिव, मैं और श्रीहरि विष्णु बहुत चिंतित हुए। हमने सोचा कि अगर इन दैवीय शक्तियों को न रोका गया तो पल भर में ही देवताओं की समाप्ति हो जाएगी।
इस धरा पर प्रलय आ जाएगी। सब सोचने लगे कि इस विनाशलीला को कैसे रोका जा सकता है? नारद, उसी समय तुम आकर कहने लगे कि इस संहार को देवी पार्वती ही रोक सकती हैं। इसके लिए आवश्यक है कि उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया जाए और किसी भी तरह उनके क्रोध को शांत किया जाए। सभी देवताओं को तुम्हारा यह विचार बहुत पसंद आया परंतु देवी पार्वती के गुस्से से सभी घबरा रहे थे। उनके सामने जाने का साहस किसी में भी नहीं था । सबने तुम्हें आगे कर दिया। हम सब महल के भीतर पार्वती के पास गए। सब देवता मिलकर देवी की स्तुति करने लगे और बोले- हे जगदंबे! हे चण्डिके! हम सब आपको प्रणाम करते हैं। आप आदिशक्ति हैं। आप परम शक्तिशाली हैं। आपने ही इस जगत की रचना की है। आप ही प्रकृति हैं। आप प्रसन्न होने पर मनोवांछित फलों को देती हैं जबकि क्रोधित होने पर सबकुछ छीन लेती हैं। हे देवी! हम सब अपने अपराध के लिए आपसे क्षमायाचना करते हैं। हम सबके अपराध को क्षमा कर दो और अपने क्रोध को शांत करो।
हे महामाई! हम तुम्हारे चरणों में अपना शीश झुकाते हैं।
हे माता! हम पर अपनी कृपादृष्टि करो।
हे परमेश्वरी! सबकुछ भूलकर प्रसन्न हो जाओ और भयानक रक्तपात को रोक दो ।
इस प्रकार देवताओं की स्तुति सुनकर देवी चुप रहीं।
कुछ समय सोचकर बोलीं ;- हे देवताओ! वैसे तो तुम्हारा अपराध सर्वथा अक्षम्य है। फिर भी तुम्हारी क्षमा याचना को मैं सिर्फ एक शर्त पर स्वीकार कर सकती हूं। यदि मेरा पुत्र गणेश पहले की भांति जीवित हो जाए तो मैं तुम सबको क्षमा कर दूंगी। यह सुनकर सब देवता चुप हो गए क्योंकि यह तो असंभव कार्य था।
फिर सभी देवता हाथ जोड़कर करुण अवस्था में भगवान शिव के सामने खड़े हो गए और बोले ;- भगवन्! अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। जिस प्रकार आपने गणेश का सिर काटकर उसे मारा है, उसी प्रकार अब उसे जीवित कर दीजिए। देवताओं को प्रार्थना सुनकर भगवान शिव बोले कि देवताओ, तुम परेशान मत होओ। मैं वही कार्य करूंगा, जिससे तुम्हारा मंगल हो ।
ॐ भगवान शिव ने देवताओं को आदेश दिया कि उत्तर दिशा में जाएं और जो भी पहला प्राणी मिले उसका सिर काटकर ले आएं। तब उसका सिर हम गणेश के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर देंगे। देवता उत्तर दिशा की ओर चल दिए। वहां सर्वप्रथम उन्हें एक दांत वाला हाथी मिला, वे उसका सिर काटकर ले आए। वहां महल के द्वार पर वापस आकर उन्होंने गणेश के धड़ को धो-पोंछकर साफ किया और उसकी पूजा की तब उसमें हाथी का सिर लगा दिया। तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु ने भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए मंत्रों से अभिमंत्रित जल गणेश के मृत शरीर पर छिड़का। जल के छींटे पड़ते ही भगवान शिव की कृपा से वह बालक ऐसे उठ खड़ा हुआ जैसे अभी-अभी नींद से जागा हो । वह बालक अब हाथी का मुख लग जाने से गजमुखी हो गया था परंतु फिर भी बहुत सुंदर और दिव्य लग रहा था। रक्तवर्ण का वह बालक अद्भुत शोभा से आलोकित हो रहा था।
जब भगवान शिव की कृपा से पार्वती पुत्र गणेश जीवित हो गया तो सभी देवता और शिवगण अत्यंत प्रसन्न होकर नृत्य करने लगे। उनका सारा दुख पल भर में ही दूर हो गया।
देवी पार्वती अपने प्रिय पुत्र गणेश को जीवित देखकर बहुत प्रसन्न हुईं। उनका क्रोध भी सांत हो गया था ।
【श्रीरुद्र संहिता】
【चतुर्थ खण्ड】
अठारहवाँ अध्याय
"गणेश गौरव"
नारद जी बोले ;- हे विधाता! जब भगवान शिव की कृपा से पार्वती पुत्र गणेश पुनः जीवित हो गए, तब वहां क्या हुआ? जीवित होकर उन्होंने क्या कहा? नारद जी का यह प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब श्रीहरि विष्णु ने हाथी का मस्तक गणेश के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया तब यह देखकर देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने गणेश को बांहों में भरकर गले से लगा लिया और उसे चूमने लगीं। फिर उन्होंने गणेश को सुंदर व मनोहर वस्त्रों एवं रत्नजड़ित आभूषणों से सजाया ।
अनेक सिद्धियों एवं मंत्रों से विधिपूर्वक अपने पुत्र का पूजन करने के बाद कल्याणमयी पार्वती ने गणेश के सिर पर हाथ रखकर वरदान देते हुए कहा — ऐ मेरे प्यारे पुत्र गणेश! तुझे तेरी माता की आज्ञा से बहुत कष्ट सहना पड़ा परंतु आज के बाद तुझे कभी भी किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा। सभी देवता तुझे पूजेंगे। पुत्र! तुम्हारे मस्तक पर सिंदूरी रंग की आभा है, इसलिए तुम्हारा पूजन सदैव सिंदूर से किया जाएगा। जो भी सिद्धियों और अभीष्ट फलों को प्राप्त करने के लिए तुम्हारा पूजन सिंदूर से करेगा, उसके काम में आने वाली सभी बाधाएं और विघ्न दूर हो जाएंगे।
इस प्रकार जब देवी पार्वती ने गणेश पर अपने आशीर्वादों की कृपा की, तब भगवान शिव भी प्रसन्नतापूर्वक गणेश के सिर पर हाथ फेरने लगे। माता पार्वती ने प्रसन्नतापूर्वक पहले भगवान शिव को देखा, फिर
श्रीगणेश को संबोधित करती हुई बोलीं ;- पुत्र ! ये ही तुम्हारे पिता भगवान शिव हैं। तब गणेशजी तुरंत उठ खड़े हुए और भगवान शिव के चरणों पर गिरकर अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे। गणेश ने कहा- हे पिताजी! मैं अज्ञानतावश आपको पहचान नहीं सका, इसी कारण मैंने आपको घर के भीतर नहीं जाने दिया था हे प्रभु, आप मेरी इस मूर्खता को कृपा करके क्षमा कर दें ।
अपने पुत्र गणेश को इस प्रकार क्षमायाचना करते देखकर भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें क्षमा कर दिया। तब मैं, विष्णुजी और शिवजी त्रिदेवों ने कहा- जिस प्रकार इस संसार में हम तीनों देवों की पूजा होती है उसी प्रकार गणेश भी सभी के द्वारा पूज्य होंगे। किसी भी मांगलिक कार्य में सर्वप्रथम गणेश का पूजन किया जाएगा, तत्पश्चात हम सबका यदि ऐसा न किया गया तो पूजा सफल नहीं मानी जाएगी तथा पूजा का फल भी नहीं मिलेगा। तब शिवजी ने सभी मांगलिक पूजन वस्तुएं मंगाकर गणेश का पूजन किया। उसके बाद मैंने, विष्णुजी, पार्वती और अन्य देवताओं ने भी उनकी विधि-विधान से पूजा की। उसके उपरांत सभी देवताओं ने उन्हें यथायोग्य वरदान प्रदान किए। उसी दिन से गणेशजी को अग्रपूजा का आशीर्वाद मिला ।
【श्रीरुद्र संहिता】
【चतुर्थ खण्ड】
उन्नीसवाँ अध्याय
"गणेश चतुर्थी व्रत का वर्णन"
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार गणेश जी के जीवित होने पर सब ओर आनंद छा गया। सभी बहुत प्रसन्न थे। सभी देवता उन्हें विभिन्न प्रकार के वरदान प्रदान कर रहे थे। तब ईश्वरों के ईश्वर महादेव जी भी गणेश पर अपनी विशेष कृपादृष्टि बनाकर बोले हे गिरिजानंदन! तुम मेरे दूसरे पुत्र हो। तुम्हें न पहचानने के कारण तुम्हारा यहां अपमान हुआ है। इसलिए मेरे भक्तों ने तुम पर आक्रमण किया परंतु आज से कोई भी तुम्हारा विरोध नहीं करेगा। तुम सभी के पूजनीय और वंदनीय होगे। तुम साक्षात् जगदंबा के तेज से उत्पन्न होने के कारण परम तेजस्वी और पराक्रमी हो। तुम्हारी वीरता और साहस का लोहा इस संसार में हर प्राणी मानेगा। आज से तुम मेरे सभी शिवगणों के अध्यक्ष हो। ये सभी तुम्हारे आदेशों का ही पालन करेंगे। आज से तुम गणपति नाम से भी जाने जाओगे। यह कहकर सर्वेश्वर भगवान शिव दो पल के लिए मौन हुए फिर
शिव बोले ;- हे गणपति ! तुम्हारा जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को देवी पार्वती के निर्मल हृदय से चंद्रमा के उदय के समय हुआ है। इसलिए आज से इस दिन जो भी पूरी भक्तिभावना से तुम्हारा स्मरण करके व्रत करेगा उसे समस्त सुखों की प्राप्ति होगी। मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी के दिन सुबह स्नान करके व्रत रखें। धातु, मूंगे या मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करें। तत्पश्चात मूर्ति की दिव्य गंधों, चंदन एवं सुगंधित फूलों से पूजा करें। रात्रि में बारह अंगुल लंबी तीन गांठ वाली एक सौ एक दूर्वाओं से पूजन करना चाहिए। उसके बाद धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, अर्घ्य देकर गणेशजी की पूजा करें। बाद में बाल चंद्रमा का पूजन करें। फिर ब्राह्मणों को उत्तम भोजन कराएं। स्वयं बिना नमक का ही खाना खाएं। इस प्रकार इस उत्तम गणेश चतुर्थी व्रत को करें ।
जब व्रत करते-करते एक वर्ष पूरा हो जाए तब भक्तिभावना से इस व्रत का उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन में बारह ब्राह्मणों को भोजन कराएं। व्रत का उद्यापन करते समय पहले से स्थापित कलश के ऊपर गणेश की मूर्ति रखें। वेदी तैयार कर उस पर अष्टदल कमल बनाकर हवन करें। तत्पश्चात मूर्ति के सामने दो स्त्रियों व बालकों को बिठाकर उनकी विधि-विधान से पूजा करें। फिर उन्हें आदरपूर्वक भोजन कराएं। पूरी रात उनका भक्तिभाव से जागरण करें। सुबह होने पर गणेशजी का पुनः पूजन करें। पूजन करने के पश्चात उनका विसर्जन कर दें। फिर बालकों से का आशीर्वाद लेकर उनसे स्वस्ति वाचन कराएं और व्रत को पूर्ण करने हेतु श्रीगणेश को पुष्प अर्पित करें। तत्पश्चात भक्तिभाव से दोनों हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करे।
हे गणेश! इस प्रकार जो श्रद्धापूर्वक उत्तम भक्तिभाव के साथ तुम्हारी शरण में आएगा और तुम्हें रोज पूजेगा, उसके सभी कार्य सफल हो जाएंगे तथा उसे सभी अभीष्ट फलों की प्राप्ति होगी। गणेश का पूजन सच्चे मन से सिंदूर, चंदन, चावल और केतकी के फूलों से करने वाले के सभी विघ्नों और क्लेशों का नाश हो जाएगा। उस मनुष्य के अभीष्ट कार्य अवश्य ही सिद्ध होंगे। यह गणेश चतुर्थी व्रत सभी स्त्री एवं पुरुषों के लिए श्रेष्ठ है। विशेषतः जो मनुष्य अभ्युदय की इच्छा रखते हैं, उन्हें उत्तम भक्तिभावना से इस व्रत को अवश्य करना चाहिए क्योंकि गणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले मनुष्य की सभी इच्छाएं और कामनाएं पूरी होती हैं। इसलिए सभी मनुष्यों को इस श्रेष्ठ व्रत को पूरा करना चाहिए तथा सदैव तुम्हारी भक्तिभाव से आराधना करनी चाहिए। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपने पुत्र गणेश को सभी मनुष्यों तथा देवताओं द्वारा पूजित होने का उत्तम आशीर्वाद प्रदान किया। सभी देवता और ऋषि-मुनि भगवान शिव के वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । उनके आनंद की कोई सीमा न रही। वे सभी भक्ति रस में डूबकर शिव-पार्वती पुत्र गणपति की आराधना करने लगे। यह देखकर देवी पार्वती की खुशी की कोई सीमा न रही । वे देवताओं को अपने पुत्र गणेश का पूजन करते देख मन ही मन भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए उनका धन्यवाद करने लगीं। उनका सारा क्रोध पल भर में ही शांत हो गया था। उस समय सभी दिशाओं में सुमधुर दुंदुभियां बजने लगीं। अप्सराएं सहर्ष नृत्य करने लगीं । सुंदर, मंगल गान होने लगे तथा श्रीगणेश जी पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। अपने पुत्र को गणाधीश बनाए जाने पर माता पार्वती फूली नहीं समा रही थीं। उस समय चारों ओर उत्सव होने लगा।
तत्पश्चात उस समय वहां उपस्थित समस्त देवता और ऋषि-मुनि उस स्थान के निकट गए जहां भगवान शिव और देवी पार्वती अपने पुत्र गणेश के साथ विराजमान थे। देवताओं और के ऋषियों ने भक्तिभावना से उन्हें नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। फिर शिवजी से विदा लेकर सब अपने-अपने धामों को चले गए। फिर मैं और श्रीहरि भी उनसे विदा लेकर अपने लोकों को लौट गए। जो मनुष्य शुद्ध हृदय से सावधान होकर इस परम मंगलकारी कथा को सुनता है, वह सभी मंगलों का भागीदार हो जाता है। यह गणेश चतुर्थी व्रत की उत्तम कथा पुत्रहीनों को पुत्र, निर्धनों को धन, रोगियों को आरोग्य, अभागों को सौभाग्य प्रदान करती है। जिस स्त्री का पति उसे छोड़कर चला गया हो, गणेश की आराधना के प्रभाव से पुनः उसके पास लौट आता है। दुखों और शोकों में डूबा मनुष्य इस उत्तम कथा को सुनकर शोक रहित होकर सुखी हो जाता है। जिस मनुष्य के घर में श्रीगणेश की महिमा का वर्णन करने वाले उत्तम ग्रंथ रहते हैं, उस घर में सदा मंगल होता है। श्रीगणेश की कृपा अपने भक्तों पर सदा रहती है और वे अपने भक्तों के कार्य में आने वाले सभी विघ्नों का विनाश कर उसकी सभी मनोकामनाओं को पूरा करते हैं।
【श्रीरुद्र संहिता】
【चतुर्थ खण्ड】
बीसवाँ अध्याय
"पृथ्वी परिक्रमा का आदेश, गणेश विवाह व कार्तिकेय का रुष्ट होना"
नारद जी ने पूछा ;- हे विधाता! आपने मुझे श्रीगणेश के जन्म एवं उनके अद्भुत पराक्रम और साहस के साथ माता पार्वती के द्वार की रक्षा करने का उत्तम वृत्तांत सुनाया । अब मुझे यह बताइए कि जब भगवान शिव ने गणेश को पुनर्जीवित करके अनेक आशीर्वाद प्रदान किए, तब उसके पश्चात वहां क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! तत्पश्चात भगवान शिव-पार्वती अपने दोनों पुत्रों गणेश और कार्तिकेय के साथ आनंदपूर्वक अपने निवास कैलाश पर्वत पर रहने लगे। शिव-पार्वती अपने पुत्रों गणेश और कार्तिकेय की बाल लीलाओं को देखकर बहुत प्रसन्न होते और बहुत लाड़-प्यार करते। वे दोनों अपने माता-पिता की भक्तिभावना से पूजा-अर्चना करते थे, जिससे शिव-पार्वती बहुत प्रसन्न होते। धीरे-धीरे ऐसी ही लीलाओं के बीच समय बीतता गया और गणेश व कार्तिकेय युवा हो गए।
तब एक दिन शिव-पार्वती साथ-साथ बैठे हुए आपस में बातचीत कर रहे थे। देवी पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि प्रभु हमारे दोनों ही पुत्र विवाह के योग्य हो गए हैं। अतः हमें अब दोनों पुत्रों का विवाह कर देना चाहिए । तब दोनों ये विचार करने लगे कि पहले गणेश का विवाह किया जाए या कार्तिकेय का । जब माता-पिता ने अपनी इच्छा पुत्रों को बताई तो उनके मन में भी विवाह की इच्छा जाग उठी। दोनों पुत्र विवाह के लिए सहर्ष तैयार हो गए।
तब भगवान शिव अपने पुत्रों से बोले ;-- हे पुत्रो ! तुम दोनों ही हमारे लिए प्रिय हो परंतु हम इस असमंजस में हैं कि तुम दोनों में से पहले किसका विवाह किया जाए? इसलिए हमने एक युक्ति निकाली है। तुम दोनों में से जो भी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौट आएगा, उसका विवाह पहले किया जाएगा। अपने पिता के ये वचन सुनकर कुमार कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन पर सवार होकर यथाशीघ्र पृथ्वी की परिक्रमा करने हेतु माता-पिता की आज्ञा लेकर निकल पड़े परंतु श्री गणेश वहीं यथावत खड़े होकर कुछ सोचने लगे । तत्पश्चात उन्होंने घर के अंदर जाकर स्नान किया और पुनः माता-पिता के पास आए और बोले- आप दोनों मेरे द्वारा लगाए गए इन आसनों को ग्रहण कीजिए। मैं आप दोनों की परिक्रमा करना चाहता हूं। तब भगवान शिव और देवी पार्वती ने हर्षपूर्वक आसन ग्रहण कर लिया। शिव-पार्वती के आसन पर बैठ जाने के पश्चात गणेश ने उन्हें हाथ जोड़कर बारंबार प्रणाम किया और उनकी विधि-विधान से पूजा-अर्चना की। पूजा करने के बाद उन्होंने भक्तिभाव से उनकी सात बार परिक्रमा की।
माता-पिता की सात बार परिक्रमा करने के पश्चात गणेश हाथ जोड़कर प्रभु के सामने खड़े हो गए और उनकी स्तुति करते हुए बोले- आपकी आज्ञा को मैंने पूरा किया। अब आप यथाशीघ्र मेरा विवाह संपन्न कराएं। यह सुनकर शिव-पार्वती ने गणेश से पृथ्वी की परिक्रमा कर आने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करने गए हैं, तुम भी जाओ और उनसे पहले लौट आओ तभी तुम्हारा विवाह पहले हो सकता है।
शिव-शिवा के ये वचन सुनकर गणेश बोले ;- आप दोनों तो महा बुद्धिमान हैं। आपके ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। आप धर्म और शास्त्रों में पारंगत हैं। मैं तो आपकी आज्ञा के अनुरूप पृथ्वी की परिक्रमा एक बार नहीं बल्कि सात बार कर आया हूं। यह सुनकर शिव-पार्वती बड़े आश्चर्यचकित होकर बोले कि हे पुत्र ! तुम इतनी विशाल सात द्वीप वाली समुद्र, पर्वत और काननों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा कब कर आए ? तुम तो यहां से कहीं गए भी नहीं ।
भगवान शिव और देवी पार्वती के इस प्रकार किए गए प्रश्न को सुनकर ,,
बुद्धिमान गणेश जी बोले ;- मैंने आप दोनों की पूजा करके आपकी सात बार परिक्रमा कर ली है। इस प्रकार मेरे द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हो गई। वेदों में इस बात का वर्णन है कि अपने माता-पिता की श्रद्धाभाव से पूजा करने के पश्चात उनकी परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य फल प्राप्त होता है। माता-पिता के चरणों की धूल ही पुत्र के लिए महान तीर्थ है। वेद शास्त्र के इसको प्रमाणित करते हैं। फिर आप क्यों इस बात को मानने से इनकार कर रहे हैं? हे पिताश्री! आप तो सर्वेश्वर हैं। निर्गुण, निराकार, परब्रह्म ईश्वर हैं। भला आप कैसे वचनों को झुठला सकते हैं? कृपा कर बताइए कि शास्त्रों के अनुसार क्या मैं गलत हूं?
इस प्रकार गणेश जी के वचन सुनकर शिव-पार्वती अत्यंत आश्चर्यचकित हुए। अपने पुत्र गणेश को वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता जानकर उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही।
तब मुस्कुराते हुए भगवान शिव-पार्वती बोले ;- हे प्रिय पुत्र ! तुम बलवान और साहसी होने के साथ-साथ परम बुद्धिमान भी हो। यह सत्य है कि जिसके पास बुद्धिबल है, वही बलशाली भी है। बिना बुद्धि के बल का प्रयोग भी संभव नहीं होता । बुद्धिहीन मनुष्य संकट में फंस जाने पर बलशाली होने के बावजूद भी, मुक्त नहीं हो पाता। वेद-शास्त्र और पुराण यही बताते हैं कि मां-बाप का स्थान सबसे ऊपर होता है। उनके चरणों में ही स्वर्ग है। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना ही पुत्र का एकमात्र धर्म है। उनकी परिक्रमा पृथ्वी की परिक्रमा से भी बढ़कर है। अतः तुम्हारी बात सर्वथा सत्य है। तुमने कार्तिकेय से पहले ही पृथ्वी की परिक्रमा पूर्ण कर ली है । अतः हमें तुम्हारा विवाह सबसे पहले और शीघ्र ही करना है।
जब भगवान शिव और पार्वती ने गणेश की बात का समर्थन कर उसे स्वीकार कर लिया तब गिरिजानंदन प्रसन्न गए और अपने माता-पिता को प्रणाम करके वहां से चले गए। महादेव जी अपनी प्रिया पार्वती जी के साथ बैठकर इस चिंता में डूब गए कि हम विवाह के लिए वधू की खोज कहां करें? जब वे इस प्रकार विचार कर रहे थे तभी प्रजापति विश्वरूप कैलाश पर्वत पर पधारे और उन्होंने भक्तिभाव से शिव - शिवा को नमस्कार कर उनकी स्तुति की। जब महादेव ने उनसे कैलाश आगमन का कारण जानना चाहा तब प्रसन्न हृदय से
विश्वरूप जी ने कहा ;- हे भगवन्! मैं आपके पास अपनी दो पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के विवाह का प्रस्ताव लेकर आया हूं। प्रभु ! सिद्धि और बुद्धि सुंदर और सर्वगुण संपन्न हैं। मैं उनका विवाह आपके पुत्र से करना चाहता हूं।
प्रजापति विश्वरूप के वचन सुनकर भगवान शिव और देवी पार्वती बहुत हर्षित हुए और उन्होंने उनका विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। भगवान शिव-शिवा ने अपने प्रिय पुत्र गणेश का शुभ विवाह सिद्धि-बुद्धि के साथ आनंदपूर्वक संपन्न कराया। इस शुभ अवसर पर सब देवता हर्षपूर्वक सम्मिलित हुए। उन्होंने गणेश को सपत्नीक ढेरों आशीर्वाद और शुभाशीष प्रदान किए और अपने-अपने स्थान पर लौट गए। तत्पश्चात श्रीगणेश अपनी दोनों पत्नियों के साथ आनंदपूर्वक विहार करने लगे। काफी समय व्यतीत हो जाने के पश्चात उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए। सिद्धि से उत्पन्न पुत्र का नाम 'शुभ' तथा बुद्धि से प्राप्त पुत्र का नाम 'लाभ' रखा गया। इस प्रकार श्रीगणेश अपनी दोनों पत्नियों और पुत्रों के साथ आनंदपूर्वक रहने लगे।
जब श्रीगणेश को सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हुए काफी समय बीत गया, तब कुमार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करके लौट आए। वे घर पहुंचने ही वाले थे कि रास्ते में ही उनकी भेंट नारद तुमसे हो गई । तब तुमने कार्तिकेय से कहा कि तुम्हारे माता-पिता ने तुमसे सौतेला व्यवहार किया है। तुम्हें पृथ्वी की परिक्रमा पर भेजकर तुम्हारे भाई गणेश का दो सुंदर कन्याओं से विवाह कर दिया है। अब तो उनके दो पुत्र भी हो चुके हैं और वे आनंदपूर्वक अपना जीवन सुख से बिता रहे हैं। यह तुम्हारे माता-पिता ने अच्छा नहीं किया है। नारद! तुम्हारी ऐसी बातें सुनकर कार्तिकेय क्रोध में भर गए। वे अत्यंत व्याकुल होकर अतिशीघ्र घर पहुंचे। क्रोध के कारण उनका मुख लाल हो गया था। कैलाश पर्वत पर पहुंचकर उन्होंने अपने माता-पिता को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तत्पश्चात उन्होंने अपने माता-पिता से इस विषय पर अपनी नाराजगी प्रकट की। कार्तिकेय ने कहा कि आप दोनों ने अपने ही पुत्र को धोखे से यहां से भगा दिया और अपने प्रिय पुत्र गणेश का चुपचाप विवाह रचा दिया। आप दोनों ने मेरे साथ सौतेले पुत्र जैसा व्यवहार किया है। यदि आप गणेश का ही विवाह पहले करना चाहते थे, तो मुझसे एक बार कहते, मैं स्वयं अपने भाई गणेश का विवाह उत्साहपूर्वक आनंद के साथ कराता परंतु आपने छल-कपट का सहारा लिया। आप सिर्फ एक पुत्र से ही प्यार करते हैं। मेरे होने न होने का आपको कोई फर्क ही नहीं पड़ता। अतः मैं यहां से हमेशा-हमेशा के लिए जा रहा हूं। अब मैं क्रौंच पर्वत पर जाकर सदैव तपस्या करूंगा। यह कहकर कुमार कार्तिकेय वहां से चले गए। भगवान शिव और पार्वती ने उन्हें समझाना चाहा, पर उन्होंने उनकी बात अनसुनी कर दी।
नारद! उस दिन से स्वामी कार्तिकेय कुमार नाम से प्रसिद्ध हो गए। तब से इन तीनों लोकों में उनका नाम कुमार कार्तिकेय विख्यात हो गया। कार्तिकेय का नाम पापहारी, शुभकारी, पुण्यमयी एवं ब्रह्मचर्य की शक्ति प्रदान करने वाला है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृति नक्षत्र में, जो भी मनुष्य स्वामी कार्तिकेय के दर्शन अथवा पूजन करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। सभी देवता और ऋषिगण भी इस दिन कार्तिकेय के दर्शनों को जाते हैं। उधर कुमार कार्तिकेय के इस प्रकार नाराज होकर चले जाने के कारण उनकी माता पार्वती बहुत दुखी थीं। वे शिवजी को साथ लेकर क्रौंच पर्वत पर गईं। उन्हें देखकर कार्तिकेय पहले ही वहां से चले गए। तब भगवान शिव उस उत्तम स्थान पर, जहां उनके पुत्र कार्तिकेय ने तप किया था, मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए और आज भी देवी पार्वती के साथ विराजमान हैं। उस दिन से शिव - शिवा दोनों अपने पुत्र कार्तिकेय को ढूंढने के लिए अमावस्या को शिव और पूर्णिमा के दिन पार्वती जी क्रौंच पर्वत पर जाते हैं।
नारद! मैंने तुम्हें समस्त पापों का नाश करने वाले श्रीगणेश और कार्तिकेय के चरित्र को सुनाया है। जो भी मनुष्य भक्तिभाव से इसे पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। यह कथा पापनाशक, सुख देने वाली, मोक्ष दिलाने वाली एवं कल्याणकारी है। इसलिए निष्काम भक्तों को इसको अवश्य सुनना और पढ़ना चाहिए।
।। श्रीरुद्र संहिता 'चतुर्थ खण्ड' ( कुमारखण्ड) संपूर्ण ।।
(नोट :- सभी अंश ,सभी खण्ड, सभी सहिंता के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )