Type Here to Get Search Results !

Shop Om Asttro

1 / 3
2 / 3

ad

शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the Twenty-one to Twenty-five chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (3rd volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

इक्कीसवाँ अध्याय 

"पार्वती की तपस्या"


ब्रह्माजी बोले ;- हे देवर्षि नारद! जब तुम पंचाक्षर मंत्र का उपदेश देकर उनके घर से चले आए तो देवी पार्वती मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं क्योंकि उन्हें महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करने का साधन मिला गया था। वे जान गई थीं कि त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को सिर्फ उनकी तपस्या करके ही जीता जा सकता है। तब मन ही मन तपस्या करने का निश्चय करके पार्वती अपने पिता हिमराज और माता मैना से बोलीं कि मैं शिवजी की तपस्या करना चाहती हूं। तप के द्वारा ही मेरे शरीर, स्वरूप, जन्म एवं वंश आदि की कृतकृत्यता होगी। इसलिए आप मुझे तप करने की आज्ञा प्रदान करें। उनकी तप करने की बात सुनकर पिता हिमालय ने सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी परंतु माता मैना ने उन्हें घर से दूर वनों में जाकर तपस्या करने से रोका। पार्वती को रोकते हुए मैना के मुंह से 'उ' 'मा' शब्द निकले तभी से उनका नाम 'उमा' हो गया। पार्वती के हठ के सामने मैना कुछ न कर सकीं। तब खुशी से उन्होंने पार्वती को तपस्या करने की आज्ञा प्रदान कर दी। तत्पश्चात माता-पिता की आज्ञा पाकर देवी पार्वती खुशी से मन में शिवजी का स्मरण करते हुए अपनी सखियों को साथ लेकर तपस्या करने के लिए चली गई। रास्ते में पार्वती ने सुंदर वस्त्रों को त्याग दिया तथा वल्कल और मृग चर्म को धारण कर लिया। उत्तम वस्त्रों का त्याग करने के उपरांत देवी गंगोत्री नामक तीर्थ की ओर चल दीं।

जिस स्थान पर भगवान शंकर ने घोर तपस्या की थी और जहां शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया था, वह स्थान गंगावतरण तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। वहीं पर देवी पार्वती ने तप करने का निश्चय किया। गौरी के यहां तपस्या करने से ही यह पर्वत 'गौरी शिखर' के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। उस स्थान पर पार्वती ने अनेक फलों के वृक्ष लगाए । तत्पश्चात पृथ्वी को शुद्ध करके वेदी बनाकर अपनी इंद्रियों को वश में करके मन को एकाग्र कर कठिन तपस्या करनी आरंभ कर दी। ऐसी तपस्या ऋषि-मुनियों के लिए भी दुष्कर थी। भयंकर गरमी के दिनों में पार्वती अपने चारों ओर अग्नि जलाकर बीच में बैठकर 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करती थीं। वर्षा ऋतु में वे किसी चट्टान पर अथवा वेदी पर बैठकर निरंतर जलधारा से भीगती हुई शांत भाव से मंत्र जपती रहती थीं। सर्दियों में बिना कुछ खाए ठंडे जल में बैठकर पंचाक्षर मंत्र का जाप करती थीं। कभी-कभी तो वे पूरी रात बर्फ की चट्टान पर बैठकर ध्यान करती थीं। सबकुछ भूलकर वे भगवान शिव के ध्यान में मग्न होकर उनका ध्यान करती रहती थीं। समय मिलने पर अपने द्वारा लगाए गए वृक्षों को पानी देती थीं। शुद्ध हृदय वाली पार्वती आंधी-तूफान, कड़ाके की सर्दी, मूसलाधार वर्षा तथा तेज धूप की परवाह किए बगैर निरंतर मनोवांछित फलों के दाता भगवान शिव का ध्यान करती रहती थीं। उन पर अनेक प्रकार के कष्ट आए परंतु उनका मन शिवजी के चरणों में ही लगा रहा।

तपस्या के पहले वर्ष में उन्होंने केवल फलाहार किया। दूसरे वर्ष में वे केवल पेड़ के पत्तों को ही खाती थीं। इस प्रकार तपस्या करते-करते अनेकानेक वर्ष बीतते गए। देवी पार्वती ने सबकुछ खाना-पीना छोड़ दिया था। अब वे केवल निराहार रहकर ही शिवजी की आराधना करती थीं। तब भोजन हेतु पर्ण का भी त्याग कर देने के कारण देवताओं ने उन्हें 'अपर्णा' नाम दिया। तत्पश्चात देवी पार्वती एक पैर पर खड़ी होकर 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करने लगीं। उनके शरीर पर वल्कल वस्त्र थे तथा मस्तक पर जटाएं थीं। इस प्रकार उस तपोवन में भगवान शिव की तपस्या करते-करते तीन हजार वर्ष बीत गए।

तीन हजार वर्ष बीत जाने पर देवी पार्वती को चिंता सताने लगी। वे सोचने लगीं कि क्या इस समय महादेव जी यह नहीं जानते कि मैं उनके लिए ही तपस्या कर रही हूं? फिर क्या कारण है कि वे मेरे पास अभी तक नहीं आए। वेदों की महिमा तो यही कहती है कि भगवान शंकर सर्वज्ञ, सर्वात्मा, सबकुछ जानने वाले, सभी ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाले, सबके मन की बातों को सुनने वाले, मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाले तथा समस्त दुखों को दूर करने वाले हैं। तब क्यों वे अपनी कृपादृष्टि से मुझ दीन को कृतार्थ नहीं करते? मैंने अपनी सभी इच्छाओं और कामनाओं को त्यागकर अपना ध्यान भगवान शिव में लगाया है। भगवन् यदि मैंने पंचाक्षर मंत्र का भक्तिपूर्वक जाप किया हो तो महादेवजी आप मुझ पर प्रसन्न हों।

इस प्रकार हर समय पार्वती शिवजी के चरणों के ध्यान में ही मग्न रहती थीं। जगदंबा मां का साक्षात अवतार देवी पार्वती की वह तपस्या परम आश्चर्यजनक थी। उनकी तपस्या सभी को मुग्ध कर देने वाली थी। उनके तप की महिमा के फलस्वरूप प्राणी और जानवर उनके ध्यान में बाधा नहीं बनते थे। उनकी तपस्या के परिणामस्वरूप वहां का वातावरण बड़ा मनोरम हो गया था। वृक्ष सदा फलों से लदे रहते थे। विभिन्न प्रकार के सुंदर सुगंधित फूल हर समय वहां खिले रहते थे। वह स्थान कैलाश पर्वत की सी शोभा पा रहा था तथा पार्वती की • तपस्या की सिद्धि का साकार रूप बन गया था।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

बाईसवाँ अध्याय 

"देवताओं का शिवजी के पास जाना"


ब्रह्माजी कहते हैं ;— मुनिश्वर! भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती को तपस्या करते-करते अनेक वर्ष बीत गए। परंतु भगवान शिव ने उन्हें वरदान तो दूर अपने दर्शन तक न दिए। तब पार्वती के पिता हिमाचल, उनकी माता मैना और मेरु एवं मंदराचल ने आकर पार्वती को बहुत समझाया तथा उनसे वापस घर लौट चलने का अनुरोध किया।

तब उन सबकी बात सुनकर देवी पार्वती ने विनम्रतापूर्वक कहा ;- हे पिताजी और माताजी! क्या आप लोगों ने मेरे द्वारा की गई प्रतिज्ञा को भुला दिया है? मैं भगवान शिव को अवश्य ही अपनी तपस्या द्वारा प्राप्त करूंगी। आप निश्चिंत होकर अपने घर लौट जाएं। इसी स्थान पर महादेव जी ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म कर दिया था और वनों को अपनी क्रोधाग्नि में भस्म कर दिया था। उन त्रिलोकीनाथ भगवान शंकर को मैं अपनी तपस्या द्वारा यहां बुलाऊंगी। आप सभी यह जानते हैं कि भक्तवत्सल भगवान शिव को केवल भक्ति से ही वश में किया जा सकता है। अपने पिता, माता और भाइयों से ये वचन कहकर देवी पार्वती चुप हो गईं। उन्हें समझाने आए उनके सभी परिजन उनकी प्रशंसा करते हुए वापस अपने घर लौट गए। अपने माता-पिता के लौटने के पश्चात देवी पार्वती दुगुने उत्साह के साथ पुनः तपस्या करने में लीन हो गईं। उनकी अद्भुत तपस्या को देखकर सभी देवता, असुर, मनुष्य, मुनि आदि सभी चराचर प्राणियों सहित पूरा त्रिलोक संतृप्त हो उठा।

देवता समझ नहीं पा रहे थे कि पूरी प्रकृति क्यों उद्विग्न और अशांत है। यह जानने के लिए इंद्र व सब देवता गुरु बृहस्पति के पास गए। तत्पश्चात वे सभी मुझ विधाता की शरण में सुमेरु पर्वत पर पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा मेरी स्तुति की। तब वे मुझसे पूछने लगे कि प्रभु! इस जगत के संतृप्त होने का क्या कारण है? उनका यह प्रश्न सुनकर मैंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए यह जान लिया कि जगत में उत्पन्न हुआ दाह देवी पार्वती द्वारा की गई तपस्या का ही परिणाम है। अतः सबकुछ जान लेने के उपरांत मैं इस बात को श्रीहरि विष्णु को बताने के लिए देवताओं के साथ क्षीरसागर को गया । वहां श्रीहरि सुखद आसन पर विराजमान थे। मुझ सहित सभी देवताओं ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी स्तुति करना आरंभ कर दिया। तत्पश्चात मैंने श्रीहरि से कहा- हे हरि! देवी पार्वती के उग्र तप से संतृप्त होकर हम सभी आपकी शरण में आए हैं। हम सबकी रक्षा कीजिए। भगवन् हमें बचाइए।

हमारी करुण पुकार सुनकर शेषशय्या पर बैठे श्रीहरि बोले ;- आज मैंने देवी पार्वती की इस घोर तपस्या का रहस्य जान लिया है परंतु उनकी इच्छा को पूरा करना हमारे वश की बात नहीं है। अतः हम सब मिलकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के पास चलते हैं। केवल वे ही हैं जो हमें इस विकट स्थिति से उबार सकते हैं। देवी पार्वती तपस्या के माध्यम से भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए भगवान शिव से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि वे देवी पार्वती से विधिवत विवाह कर लें। हम सभी को इस विश्व का कल्याण करने के लिए भगवान शिव से पार्वती का पाणिग्रहण करने का अनुरोध करना चाहिए। 

भगवान विष्णु की बात सुनकर सभी देवता भयभीत होते हुए बोले ;- भगवन्! भगवान शिव बहुत क्रोधी और हठी हैं। उनके नेत्र काल की अग्नि के समान दीप्त हैं। हम भूलकर भी भगवान शंकर के पास नहीं जाएंगे। उनका क्रोध सहा नहीं जाएगा। उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था। हमें डर है कि कहीं क्रोध में वे हमें भी भस्म न कर दें।

हे नारद! इंद्रादि देवताओं की बात सुनकर लक्ष्मीपति श्रीहरि बोले ;- तुम सब मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुनो! भगवान शिव समस्त देवताओं के स्वामी और भयों का नाश करने वाले हैं। तुम सबको मिलकर कल्याणकारी भगवान शिव की शरण में जाना चाहिए। भगवान शंकर पुराण पुरुष, सर्वेश्वर और परम तपस्वी हैं। हमें उनकी शरण में जाना ही चाहिए। भगवान विष्णु के इन वचनों को सुनकर सब देवता त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का दर्शन करने के लिए उस स्थान की ओर चल पड़े, जहां महादेव जी तपस्या कर रहे थे।

उस मार्ग में ही देवी पार्वती उत्तम तपस्या में लीन थीं। उनके तप को देखकर सभी देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। तत्पश्चात उनके तप की प्रशंसा करते हुए मैं, श्रीहरि विष्णु और अन्य देवता भगवान शिव के दर्शनार्थ चल दिए। वहां पहुंचकर हम सभी देवता कुछ दूरी पर खड़े हो गए और हमने तुम्हें भगवान शिव के करीब यह देखने के लिए भेजा कि वे कुपित हैं या प्रसन्न । नारद! तुम भगवान शिव के परमभक्त हो तथा उनकी कृपा से सदा निर्भय रहते हो। इसलिए तुम भगवान शिव के निकट गए तथा तुमने उन्हें प्रसन्न देखा । फिर तुम वापस लौटकर हम सभी के पास आए तथा उनकी प्रसन्नता के बारे में हमें बताया। तब हम सब भगवान शिव के करीब गए। भगवान शिव सुखपूर्वक प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए थे। भक्तवत्सल भगवान शिव चारों ओर से अपने गणों से घिरे हुए थे और तपस्वी का रूप धारण करके योगपट्ट पर आसीन थे। मैंने, श्रीहरि और अन्य देवताओं ने भगवान शिव शंकर को प्रणाम करके वेदों और उपनिषदों द्वारा ज्ञात विधि से उनकी स्तुति की।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

तेईसवाँ अध्याय 

"शिव से विवाह करने का उनुरोध"


ब्रह्माजी कहते हैं ;— हे नारद! देवताओं ने वहां पहुंचकर भगवान शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। 

वहां उपस्थित नंदीश्वर भगवान शिव से बोले ;- प्रभु! देवता और मुनि संकट में पड़कर आपकी शरण में आए हैं। सर्वेश्वर आप उनका उद्धार करें । दयालु नंदी के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव ने धीरे-धीरे आंखें खोल दीं। समाधि से विरत होकर परमज्ञानी परमात्मा भगवान शंकर देवताओं से बोले - हे ब्रह्माजी! हे श्रीहरि विष्णु ! एवं अन्य देवताओ, आप सब यहां एक साथ क्यों आए हैं? आपके आने का क्या प्रयोजन है? आप सभी को साथ देखकर लगता है कि अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण बात है। अतः आप मुझे उस बात से अवगत कराएं।

भगवान शंकर के ये वचन सुनकर सभी देवताओं का भय पूर्णतः दूर हो गया और वे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु को देखने लगे। 

तब श्रीहरि विष्णु सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए भगवान शिव से बोले - भगवान शंकर ! तारकासुर नामक दानव ने हम सभी देवताओं को बहुत दुखी कर रखा है। उसने हमें अपने-अपने स्थानों से भी निकाल दिया है। यही सब बताने के लिए हम सब देवता आपके पास आए हैं। भगवन्! ब्रह्माजी द्वारा प्राप्त वरदान के फलस्वरूप उस तारकासुर की मृत्यु आपके पुत्र के द्वारा निश्चित है। हे स्वामी! आप उस दुष्ट का नाश कर हम सबकी रक्षा करें। हम सबका उद्धार कीजिए । प्रभो! आप हिमालय पुत्री पार्वती का पाणिग्रहण कीजिए। आपका विवाह ही हमारे कष्टों को दूर कर सकता है। आप भक्तवत्सल हैं। अपने भक्तों के दुखों को दूर करने के लिए आप देवी पार्वती से शीघ्र विवाह कर लीजिए ।

विष्णुजी के ये वचन सुनकर भगवान शिव बोले ;- देवताओ! यदि मैं आपके कहे अनु परम सुंदरी देवी पार्वती से विवाह कर लूं तो इस धरती पर सभी मनुष्य देवता और ऋषि-मुनि कामी हो जाएंगे। तब वे परमार्थ पद पर नहीं चल सकेंगे। देवी दुर्गा अपने विवाह से कामदेव को पुनः जीवित कर देंगी। मैंने कामदेव को भस्म करके देवताओं के हित का ही कार्य किया था। सभी देव निष्काम भाव से उत्तम तपस्या कर रहे थे, ताकि विशिष्ट प्रयोजन को पूर्ण कर सकें। कामदेव के न होने से सभी देवता निर्विकार होकर शांत भाव से समाधि में ध्यानमग्न होकर बैठ सकेंगे। काम से क्रोध होता है। क्रोध से मोह हो जाता है और मोह के फलस्वरूप तपस्या नष्ट हो जाती है। इसलिए मैं तो आप सबसे भी यही कहता हूं कि आप भी काम और क्रोध को त्यागकर तपस्या करें ।

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के मुख से इस प्रकार की बातें सुनकर हम सभी हत्प्रभ से उन्हें देखते रहे और वे हम सब देवताओं और मुनियों को निष्काम होने का उपदेश देकर चुप हो गए और पुनः पहले की भांति सुस्थिर होकर ध्यान में लीन हो गए। भगवान शिव ब्रह्म स्वरूप आत्मचिंतन में लग गए। 

श्रीहरि विष्णु सहित अन्य देवताओं ने जब परमेश्वर शिव को ध्यान में मग्न देखा तब सब देवता नंदीश्वर से कहने लगे- नंदीश्वर जी! हम अब क्या करें? हमें भगवान शिव को प्रसन्न करने का कोई मार्ग सुझाइए। तब नंदीश्वर सभी देवताओं को संबोधित करते हुए बोले - आप भक्तवत्सल भगवान शिव की प्रार्थना करते रहो। वे सदैव ही अपने भक्तों के वश में रहते हैं। तब नंदीश्वर की बात सुनकर देवता पुनः भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे बोले – हे देवाधिदेव! महादेव! करुणानिधान! भगवान शिव शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। आप हम सबके सभी दुखों और कष्टों को दूर कीजिए और हम सबका उद्धार कीजिए। इस प्रकार देवताओं ने भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की। इसके बाद भी जब भगवान ने आंखें नहीं खोलीं तो सब देवता उनकी करुण स्वर में स्तुति करते हुए रोने लगे। तब श्रीहरि विष्णु मन ही मन भगवान शिव का स्मरण करने लगे और करुण स्वर में अपना निवेदन करने लगे। देवताओ, मेरे और श्रीहरि विष्णु के बार-बार निवेदन करने पर भगवान शिव की तंद्रा टूटी और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी आंखें खोल दीं। तब भगवान शिव बोले- तुम सब एक साथ यहां किसलिए आए हो? मुझे इससे अवगत कराओ।

श्रीहरि विष्णु बोले ;- हे देवेश्वर ! हे शिव शंकर! आप सर्वज्ञ हैं। सबके अंतर्यामी ईश्वर हैं। आप तो सबकुछ जानते हैं। भगवन्, आप हमारे मन की बात भी अवश्य ही जानते होंगे। फिर भी यदि आप हमारे मुख से सुनना चाहते हैं तो सुनें। तारक नामक असुर आजकल बड़ा बलशाली हो गया है। वह देवताओं को अनेकों प्रकार के कष्ट देता है। इसलिए हम सभी देवताओं ने देवी जगदंबा से प्रार्थना कर उन्हें गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में अवतार ग्रहण कराया है। इसलिए ही हम बार-बार आपकी प्रार्थना कर रहे हैं कि आप देवी पार्वती को पत्नी रूप में प्राप्त करें। ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र ही तारकासुर का वध कर हमें उसके आतंक से मुक्त करा सकता है। मुनिश्रेष्ठ नारद के उपदेश के अनुसार देवी पार्वती कठोर तपस्या कर रही हैं। उनकी तपस्या के तेज के प्रभाव से समस्त चराचर जगत संतप्त हो गया है। इसलिए हे भगवन्! आप पार्वती को वरदान देने के लिए जाइए हे प्रभु! देवताओं पर आए इस संकट और उनके दुखों को मिटाने  के लिए आप देवी पार्वती पर अपनी कृपादृष्टि कीजिए। आपका विवाह उत्सव देखने के लिए हम सभी बहुत उत्साहित हैं। अतः प्रभु, आप शीघ्र ही विवाह बंधन में बंधकर हमारी इस इच्छा को भी पूरा करें। भगवन्! आपने रति को जो वरदान प्रदान किया था, उसके पूरा होने का भी अवसर आ गया है। अतः महेश्वर! आप अपनी प्रतिज्ञा को शीघ्र ही पूरा करें।

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! ऐसा कहकर और प्रणाम करके विष्णुजी और अन्य देवताओं ने पुनः शिवजी की स्तुति की। तत्पश्चात वे सब हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब उन्हें देखकर वेद मर्यादाओं के रक्षक भगवान शिव हंसकर बोले-'हे हरे! हे विधे! और हे देवताओ! मेरे अनुसार विवाह करना उचित कार्य नहीं है क्योंकि विवाह मनुष्य को बांधकर रखने वाली बेड़ी है। जगत में अनेक कुरीतियां हैं। स्त्री का साथ उनमें से एक है। मनुष्य सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो सकता है परंतु स्त्री के बंधन से वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। एक बार को लोहे और लकड़ी की बनी जंजीरों से मुक्ति मिल सकती है परंतु विवाह एक ऐसी कैद है, जिससे छुटकारा पाना असंभव है। विवाह मन को विषयों के वशीभूत कर देता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति असंभव हो जाती है। मनुष्य यदि सुख की इच्छा रखता है तो उसे इन विषयों को त्याग देना चाहिए। विषयों को विष के समान माना जाता है। इन सब बातों का ज्ञान होते हुए भी, मैं आप सबकी प्रार्थना को सफल करूंगा क्योंकि मैं सदैव ही अपने भक्तों के अधीन रहता हूं। मैंने अपने भक्तों की रक्षा के लिए अनेक कष्ट सहे हैं।

हे हरे! और हे विधे! आप तो सबकुछ जानते ही हैं। मेरे भक्तों पर जब-जब विपत्ति आती हैं, तब-तब मैं उनके सभी कष्टों को दूर करता हूं। भक्तों के अधीन होने के कारण मैं उनके हित में अनुचित कार्य भी कर बैठता हूं। भक्तों के दुखों को मैं हमेशा दूर करता हूं। तारकासुर ने तुम्हें जो दुख दिए हैं, उन्हें मैं भलीभांति जानता हूं। उनको मैं अवश्य ही दूर करूंगा। जैसा कि आप सभी जानते हैं, मेरे मन में विवाह करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी पुत्र प्राप्ति हेतु मैं देवी पार्वती का पाणिग्रहण अवश्य करूंगा। अब तुम सब देवता निर्भय और निडर होकर अपने-अपने धाम को लौट जाओ। मैं तुम्हारे कार्य की सिद्धि अवश्य करूंगा। इसलिए अपनी सभी चिंताओं को त्यागकर सभी सहर्ष अपने घर जाओ।

ऐसा कहकर भगवान शिव शंकर पुनः मौन हो गए और समाधि में बैठकर ध्यान में मग्न हो गए। तत्पश्चात, विष्णुजी और मैं देवराज इंद्र सहित सभी देवता अपने-अपने धामों को खुशी से लौट आए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

चौबीसवाँ अध्याय 

"सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा"


ब्रह्माजी कहते हैं ;— देवताओं के अपने-अपने निवास पर लौट जाने के उपरांत भगवान शिव पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने के विषय में सोचने लगे। वे अपने परात्पर, माया रहित स्वरूप का चिंतन करने लगे। वैसे तो वे सर्वेश्वर और सर्वज्ञ हैं। वे ही सब के रचनाकार और परमेश्वर हैं।

उस समय देवी पार्वती बहुत कठोर तप कर रही थीं। उस तपस्या को देखकर स्वयं भगवान शिव भी आश्चर्यचकित हो गए। उनकी अटूट भक्ति ने शिवजी को विचलित कर दिया। तब भगवान शिव ने सप्तऋषियों का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही सातों ऋषि वहां आ गए। वे अत्यंत प्रसन्न थे और अपने सौभाग्य की सराहना कर रहे थे। उन्हें देखकर शिवजी हंसते हुए बोले- आप सभी परम हितकारी व सभी वस्तुओं का ज्ञान रखने वाले हैं। गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती इस समय सुस्थिर होकर शुद्ध हृदय से गौरी शिखर पर्वत पर घोर तपस्या कर रही हैं। उनकी इस तपस्या का एकमात्र उद्देश्य मुझे पति रूप में प्राप्त करना है। उन्होंने अपनी सभी कामनाओं को त्याग दिया है। मुनिवरों, आप सब मेरी इच्छा से देवी पार्वती के पास जाएं और उनकी दृढ़ता की परीक्षा लें।

भगवान शिव की आज्ञा पाकर सातों ऋषि देवी पार्वती के तपस्या वाले स्थान पर चले गए। वहां देवी पार्वती तपस्या में लीन थीं। उनका मुख तपपुंज से प्रकाशित था। उन उत्तम व्रतधारी सप्तऋषियों ने हाथ जोड़कर मन ही मन देवी पार्वती को प्रणाम किया। 

तत्पश्चात ऋषि बोले ;– हे देवी! गिरिराज नंदिनी! हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि आप किसलिए यह तपस्या कर रही हैं? आप इस तप के द्वारा किस देवता को प्रसन्न करना चाहती हैं? और आपको किस फल की इच्छा है?

उन सप्तऋषियों के इस प्रकार पूछने पर गिरिराजकुमारी देवी पार्वती बोलीं – मुनीश्वरो! आप लोगों को मेरी बातें अवश्य ही असंभव लगेंगी। साथ ही मुझे इस बात की भी आशंका है कि आप लोग मेरा परिहास उड़ाएंगे परंतु फिर भी जब आपने मुझसे कुछ पूछा है तो मैं आपको इसका उत्तर अवश्य दूंगी। मेरा मन एक बहुत उत्तम कार्य के लिए तपस्या कर रहा है। वैसे तो यह कार्य होना बहुत मुश्किल है, तथापि मैं इसकी सिद्धि हेतु पूरे मनोयोग से कार्य कर रही हूं। देवर्षि नारद द्वारा दिए गए उपदेश के अनुसार मैं भगवान शिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए उनकी तपस्या कर रही हूं। मेरा मन सर्वथा उन्हीं के ध्यान में मग्न रहता है तथा मैं उन्हीं के चरणारविंदों का चिंतन करती रहती हूं।

देवी पार्वती का यह वचन सुनकर सप्तर्षि हंसने लगे और पार्वती को तपस्या मार्ग से निवृत्त करने के उद्देश्य से मिथ्या वचन बोलने लगे। उन्होंने कहा- 'हे हिमालय पुत्री पार्वती! देवर्षि नारद तो व्यर्थ ही अपने को महान पंडित मानते हैं। उनके मन में क्रूरता भरी रहती है ।

आप तो बहुत समझदार दिखाई देती हैं। क्या आप उनको समझ नहीं पाईं ? नारद सदैव छल-कपट की बातें करते हैं। वे दूसरों को मोह-माया में डालते रहते हैं। उनकी बातें मानने से सिर्फ हानि ही होती है। प्रजापति दक्ष के पुत्रों को उन्होंने ऐसा उपदेश दिया कि वे हमेशा के लिए अपना घर छोड़कर चले गए। दक्ष के ही अन्य पुत्रों को भी उन्होंने बेघर कर दिया और वे भिखारी बन गए। विद्याधर चित्रकेतु का नारद ने घर उजाड़ दिया। प्रह्लाद को भक्ति मार्ग पर चलवाकर और उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्होंने हिरण्यकशिपु से प्रह्लाद पर बहुत से अत्याचार करवाए। मुनि नारद सदैव लोगों को अपनी मीठी-मीठी वाणी द्वारा मोहित करते हैं। फिर अपनी इच्छानुसार सबसे कार्य करवाते हैं। वे केवल शरीर से ही शुद्ध दिखाई देते हैं जबकि उनका मन मलिन और क्लेशयुक्त रहता है। वे सदैव हमारे साथ रहते हैं। इसलिए हम उन्हें भली-भांति जानते और पहचानते हैं। हे देवी! आप तो अत्यंत विद्वान और परम ज्ञानी जान पड़ती हैं। भला आप कैसे नारद के द्वारा मूर्ख बन गईं?

देवी! आप जिनके लिए इतनी कठोर तपस्या कर रही हैं, वे भगवान शिव तो बहुत उदासीन और निर्विकार हैं। वे सदैव काम के शत्रु हैं। हे पार्वती! आप थोड़ा विचार करके देखो कि आप किस प्रकार का पति चाहती हैं? आप मुनि नारद के बहकावे में न आएं। भगवान शिव तो महा निर्लज्ज, अमंगल रूप, काम के परम शत्रु, निर्विकारी, उदासीन, कुल से हीन, भूतों व प्रेतों के साथ रहने वाले हैं। भला इस प्रकार का पति पाकर आपको किस प्रकार का सुख मिल सकता है? नारद मुनि ने अपनी माया से तुम्हारे ज्ञान और विवेक को पूर्णतया नष्ट कर दिया है और तुम्हें अपनी छल-कपट-प्रपंच वाली बातों से छला है। देवी ! कृपया आप यह सोचें कि इन्हीं शिव शंकर ने परम गुणवती सुंदर दक्ष पुत्री सती के साथ विवाह किया था। उस बेचारी को भी उनके साथ अत्यंत दुख उठाने पड़े। भगवान शिव सती को त्यागकर पुनः अपने ध्यान में निमग्न हो गए। वे सदा अकेले और शांत रहने वाले हैं। वे किसी स्त्री के साथ निर्वाह नहीं कर सकते। तभी तो देवी सती ने इसी दुख के कारण अपने पिता के घर जाकर अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया था।

हे देवी! इन सब बातों को यदि आप शांत मन से ध्यान लगाकर सोचें तो पूर्णतया सही पाएंगी। इसलिए हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप यह तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न करने का हठ छोड़ दें और वापिस अपने पिता हिमालय के घर चली जाएं। जहां तक आपके विवाह का प्रश्न है हम आपका विवाह योग्य वर से अवश्य करा देंगे। इस समय आपके लिए त्रिलोकी में सबसे योग्य पुरुष बैकुण्ठ के स्वामी, लक्ष्मीपति श्रीहरि विष्णु हैं। वे तुम्हारे अनुरूप ही सुंदर एवं मंगलकारी हैं। उन्हें पति के रूप में प्राप्त करके आप सुखी हो जाएंगी। अतः देवी आप भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के इस हठ को त्याग दें।

सप्तऋषियों की ऐसी बातें सुनकर साक्षात जगदंबा का अवतार देवी पार्वती हंसने लगीं और उन परम ज्ञानी सप्तऋषियों से बोलीं- हे मुनीश्वरो, आप अपनी समझ के अनुसार सही कह रहे हैं परंतु मैं अपने दृढ़ विश्वास को त्याग नहीं सकती। मैं गिरिराज हिमालय की पुत्री हूं। पर्वत पुत्री होने के कारण मैं स्वाभाविक रूप से कठोर हूं। मैं तपस्या से घबरा नहीं सकती। इसलिए हे मुनिगणो, आप मुझे रोकने की चेष्टा न करें। मैं जानती हूं कि देवर्षि नारद ने जो उपदेश मुझे दिया है और शिवजी की प्राप्ति का साधन जो मुझे बताया है, वह असत्य नहीं है। मैं उसका पालन अवश्य करूंगी। यह तो सर्वविदित है कि गुरुजनों का वचन सदैव हित के लिए ही होता है। इसलिए मैं अपने गुरु नारद जी के वचनों का सर्वथा पालन करूंगी। इससे ही मुझे दुखों से छुटकारा मिलेगा और सुख की प्राप्ति होगी। जो गुरु के वचनों को मिथ्या जानकर उन पर नहीं चलते, उन्हें इस लोक और परलोक में दुख ही मिलता है। इसलिए गुरु के वचनों को पत्थर की लकीर मानकर उनका पालन करना चाहिए। अतः मेरा घर बसे या न बसे, मैं तपस्या का यह पथ नहीं छोडूंगी।

हे मुनिश्वरो! आपका कथन भी सही है। भगवान विष्णु सद्गुणों से युक्त हैं तथा नित नई लीलाएं रचते हैं परंतु भगवान शिव साक्षात परब्रह्म हैं। वे परम आनंदमय हैं। माया-मोह में फंसे लोगों को ही प्रपंचों की आवश्यकता होती है। ईश्वर को इन सबकी न तो कोई आवश्यकता होती है और न ही रुचि । भगवान शिव सिर्फ भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। वे धर्म या जाति विशेष पर कृपा नहीं करते। ऋषियो ! यदि भगवान शिव मुझे पत्नी रूप में नहीं स्वीकारेंगे, तो मैं आजीवन कुंवारी ही रहूंगी और किसी अन्य का वरण कदापि नहीं करूंगी। यदि सूर्य पूर्व की जगह पश्चिम से निकलने लगे, पर्वत अपना स्थान छोड़ दें और अग्नि शीतलता अपना ले, चट्टानों पर फूल खिलने लगें, तो भी मैं अपना हठ नहीं छोडूंगी।

ऐसा कहकर देवी पार्वती ने सप्तऋषियों को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा भक्तिभाव से शिव चरणों का स्मरण करते हुए पुनः तपस्या में लीन हो गईं। तब पार्वती के श्रीमुख से उनका दृढ़ निश्चय सुनकर सप्तऋषि बहुत प्रसन्न हुए और उनकी जय-जयकार करने लगे। उन्होंने पार्वती को तपस्या में सफल होकर भगवान शिव से मनोवांछित वरदान प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात देवी पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने गए सप्तर्षि उन्हें प्रणाम करके प्रसन्न मुद्रा में भगवान शिव को वहां हुई सभी बातों का ज्ञान कराने के लिए शीघ्र उनके धाम की ओर चल दिए। तब भगवान शिव शंकर के पास पहुंचकर सप्तऋषियों ने उनके समीप जाकर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। तत्पश्चात सप्तऋषियों ने महादेव जी को सारा वृत्तांत बताया। फिर प्रभु शिव की आज्ञा पाकर सप्तऋषि स्वर्गलोक चले गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

पच्चीसवाँ अध्याय 

"शिवजी द्वारा पार्वती जी की तपस्या की परीक्षा करना"


ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! सप्तऋषियों ने पार्वती जी के आश्रम से आकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को वहां का सारा वृत्तांत सुनाया। सप्तऋषियों के अपने लोक चले जाने के पश्चात शिवजी ने देवी पार्वती की तपस्या की स्वयं परीक्षा लेने के बारे में सोचा। परीक्षा लेने के लिए महादेव जी ने एक तपस्वी का रूप धारण किया और उस स्थान की ओर चल दिए जहां पार्वती तपस्यारत थीं। आश्रम में पहुंचकर उन्होंने देखा देवी पार्वती वेदी पर बैठी हुई थीं और उनका मुखमंडल चंद्रमा की कला के समान तेजोद्दीप्त था। भगवान शिव ब्राह्मण देवता का रूप धारण करके उनके सम्मुख पहुंचे। ब्राह्मण देवता को आया देखकर पार्वती ने भक्तिपूर्वक उनका फल-फूलों से पूजन सत्कार किया। पूजन के बाद देवी पार्वती ने ब्राह्मण देवता से पूछा – हे ब्राह्मणदेव! आप कौन हैं और कहां से पधारे हैं? मुनिश्वर! आपके परम तेज से यह पूरा वन प्रकाशित हो रहा है। कृपा कर मुझे अपने यहां आने का कारण बताइए।

तब ब्राह्मण रूप धारण किए हुए महादेव जी बोले ;- मैं इच्छानुसार विचरने वाला ब्राह्मण हु । मेरा मन प्रभु के चरणों का ही ध्यान करता है। मेरी बुद्धि सदैव उन्हीं का स्मरण करती है। में दूसरो को सुखी करके खुश होता हूँ। देवी में एक तपस्वी हुं पर आप कोन है ? आप किसकी पुत्री हैं? और इस समय इस निर्जन वन में क्या कर रही हैं? हे देवी! आप इस दुर्लभ और कठिन तपस्या से किसे प्रसन्न करना चाहती हैं? तपस्या या तो ऋषि-मुनि करते हैं या फिर भगवान के चरणों में ध्यान लगाना वृद्धों का काम है। भला इस तरुणावस्था में आप क्यों घर के ऐशो आराम को त्यागकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई तपस्विनी का जीवन जी रही हैं? आप किस तपस्वी की धर्मपत्नी हैं और पति के समान तप कर रही हैं? हे देवी! अपने बारे में मुझे जानकारी दीजिए कि आपका क्या नाम है? और आपके पिता का क्या नाम है ? किस प्रकार आप तप के प्रति आसक्त हो गईं? क्या आप वेदमाता गायत्री हैं? लक्ष्मी हैं अथवा सरस्वती हैं?

देवी पार्वती बोलीं ;- हे मुनिश्रेष्ठ! न तो मैं वेदमाता गायत्री हूं, न लक्ष्मी और न ही सरस्वती हूं। मैं गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हूं। पूर्व जन्म में मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी परंतु मेरे पिता दक्ष द्वारा मेरे पति भगवान शिव का अपमान देखकर मैंने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दिया था। इस जन्म में भी प्रभु शिवशंकर की सेवा करने का मुझे अवसर मिला था। मैं नियमपूर्वक उनकी सेवा में व्यस्त थी परंतु दुर्भाग्य से कामदेव के चलाए गए बाण के फलस्वरूप शिवजी को क्रोध आ गया और उन्होंने कामदेव को अपने क्रोध की अग्नि से भस्म कर दिया और वहां से उठकर चले गए। उनके इस प्रकार चले जाने से मैं पीड़ित होकर उनकी प्राप्ति का प्रयत्न करने हेतु तपस्या करने गंगा के तट पर चली आई हूं। यहां मैं बहुत लंबे समय से कठोर तपस्या कर रही हूं ताकि मैं शिवजी को पुनः पति रूप में प्राप्त कर सकूं परंतु मैं ऐसा करने में सफल नहीं हो सकी हूं। मैं अभी अग्नि में प्रवेश करने ही वाली थी कि आपको आया देखकर ठहर गई। अब आप जाइए, मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी क्योंकि भगवान शिव ने मुझे स्वीकार नहीं किया है।

ऐसा कहकर देवी पार्वती उन ब्राह्मण देवता के सामने ही अग्नि में समा गई। ब्राह्मण देव ने उन्हें ऐसा करने से बहुत रोका परंतु देवी पार्वती ने उनकी एक भी बात नहीं सुनी और अग्नि में प्रवेश कर लिया परंतु देवी पार्वती की तपस्या के प्रभाव के फलस्वरूप वह धधकती हुई। अग्नि एकदम ठंडी हो गई। सहसा पार्वती आकाश में ऊपर की ओर उठने लगीं। तब ब्राह्मण रूप धारण किए हुए भगवान शिव हंसते हुए बोले-हे देवी! तुम्हारे शरीर पर अग्नि का कोई प्रभाव न पड़ना तुम्हारी तपस्या की सफलता का ही सूचक है। परंतु तुम्हारी मनोवांछित इच्छा का पूरा न होना तुम्हारी असफलता को दर्शाता है। अतः देवी तुम मुझ ब्राह्मण से अपनी तपस्या के मनोरथ को बताओ।

शिवजी के इस प्रकार पूछने पर उत्तम व्रत का पालन करने वाली देवी पार्वती ने अपनी सखी को उत्तर देने के लिए कहा। 

उनकी सखी बोली ;- हे साधु महाराज! मेरी सखी गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हैं। पार्वती का अभी तक विवाह नहीं हुआ है। ये भगवान शिव को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसी के लिए वे तीन हजार वर्षों से कठोर तपस्या कर रही हैं। मेरी सखी पार्वती ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इंद्र को छोड़कर पिनाकपाणि भगवान शंकर को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए ये मुनि नारद की आज्ञानुसार कठोर तपस्या कर रही हैं।

देवी पार्वती की सखी की बातें सुनकर जटाधारी तपस्वी का वेष धारण किए हुए भगवान शिव हंसते हुए बोले- देवी! आपकी सखी ने जो कुछ मुझे बताया है, मुझे परिहास जैसा लगता है। यदि फिर भी यही सत्य है तो पार्वती आप स्वयं इस बात को स्वीकार करें और मुझसे इस बात को कहें।

Tags

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.