Om Asttro / ॐ एस्ट्रो

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ॐ नमस्ते गणपतये ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे यहां पर वैदिक ज्योतिष के आधार पर कुंडली , राज योग , वर्ष पत्रिका , वार्षिक कुंडली , शनि रिपोर्ट , राशिफल , प्रश्न पूछें , आर्थिक भविष्यफल , वैवाहिक रिपोर्ट , नाम परिवर्तन पर ज्योतिषीय सुझाव , करियर रिपोर्ट , वास्तु , महामृत्‍युंजय पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , केतु ग्रह शांति पूजा , कालसर्प दोष पूजा , नवग्रह पूजा , गुरु ग्रह शांति पूजा , शुक्र ग्रह शांति पूजा , सूर्य ग्रह शांति पूजा , पितृ दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रह शांति पूजा , सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ , प्रेत बाधा निवारण पूजा , गंडमूल दोष निवारण पूजा , बुध ग्रह शांति पूजा , मंगल दोष (मांगलिक दोष) निवारण पूजा , केमद्रुम दोष निवारण पूजा , सूर्य ग्रहण दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रहण दोष निवारण पूजा , महालक्ष्मी पूजा , शुभ लाभ पूजा , गृह-कलेश शांति पूजा , चांडाल दोष निवारण पूजा , नारायण बलि पूजन , अंगारक दोष निवारण पूजा , अष्‍ट लक्ष्‍मी पूजा , कष्ट निवारण पूजा , महा विष्णु पूजन , नाग दोष निवारण पूजा , सत्यनारायण पूजा , दुर्गा सप्तशती चंडी पाठ (एक दिन) जैसी रिपोर्ट पाए और घर बैठे जाने अपना भाग्य अभी आर्डर करे

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                      “दशगात्र – विधान”

गरुड़ जी बोले – हे केशव ;- आप दशगात्र विधि के संबंध में बताइए, इसके करने से कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है और पुत्र के अभाव में इसको किसे करना चाहिए।

श्रीभगवान बोले – हे तार्क्ष्य ;- अब मैं दशगात्रविधि को तुमसे कहता हूँ, जिसको धारण करने से सत्पुत्र पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। पुत्र (पिता के मरने पर) शोक का परित्याग करके धैर्य धारण कर सात्विक भाव से समन्वित होकर पिता का पिण्डदान आदि कर्म करें। उसे अश्रुपात नहीं करना चाहिए।

क्योंकि बान्धवों के द्वारा किये गये अश्रुपात और श्लेष्मपात को विवश होकर (पितारूपी) प्रेत पान करता है इसलिए इस समय निरर्थक शोक करके रोना नहीं चाहिए। यदि मनुष्य हजारों वर्ष रात-दिन शोक करता रहे, तो भी प्राणी कहीं भी दिखाई नहीं पड़ सकता। जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है और जिसकी मृ्त्यु हुई है उसका जन्म भी निश्चित है। इसलिए बुद्धिमान को इस अवश्यम्भावी जन्म-मृत्यु के विषय में शोक नहीं करना चाहिए। ऎसा कोई दैवी अथवा मानवीय उपाय नहीं है, जिसके द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ व्यक्ति पुन: यहाँ वापिस आ सके।

अवश्यम्भावी भावों का प्रतीकार यदि संभव होता तो नल, राम और युधिष्ठिर महाराज आदि दु:ख न प्राप्त करते। इस जगत में सदा के लिए किसी का किसी भी व्यक्ति के साथ रहना संभव नहीं है। जब अपने शरीर के साथ भी जीवात्मा का सार्वकालिक संबंध संभव नहीं है तो फिर अन्य जनों के आत्यन्तिक सहवास की तो बात ही क्या?

जिस प्रकार कोई पथिक छाया का आश्रय लेकर विश्राम करता है और विश्राम करके पुन: चला जाता है, उसी प्रकार प्राणी का संसार में परस्पर मिलन होता है। पुन: प्रारब्ध कर्मों को भोगकर वह अपने गन्तव्य को चला जाता है। प्रात: काल जो भोज्य पदार्थ बनाया जाता है, वह सांयकाल नष्ट हो जाता है – ऎसे नष्ट होने वाले अन्न के रस से पुष्ट होने वाले शरीर की नित्यता की कथा ही क्या? पितृमरण से होने वाले दु:ख के लिये यह पूर्वोक्त विचार औषधस्वरूप है। अत: इसका सम्यक चिन्तन करके अज्ञान से होने वाले शोक का परित्याग कर पुत्र को अपने पिता की क्रिया करनी चाहिए।

पुत्र के अभाव में पत्नी को और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को तथा सहोदर भाई के अभाव में ब्राह्मण की क्रिया उसके शिष्य को अथवा किसी सपिण्डी व्यक्ति को करनी चाहिए।

हे गरुड़ ;- पुत्रहीन व्यक्ति के मरने पर उसके बड़े अथवा छोटे भाई के पुत्रों या पौत्रों के द्वारा दशगात्र आदि कार्य कराने चाहिए। एक पिता से उत्पन्न होने वाले भाईयों में यदि एक भी पुत्रवान हो तो उसी पुत्र से सभी भाई पुत्रवान हो जाते हैं, ऎसा मनु जी ने कहा है।

यदि एक पुरुष की बहुत-सी पत्नियों में कोई एक पुत्रवती हो जाए तो उस एक ही पुत्र से वे सभी पुत्रवती हो जाती हैं। सभी भाई पुत्रहीन हों तो उनका मित्र पिण्डदान करे अथवा सभी के अभाव में पुरोहित को ही क्रिया करनी चाहिए। क्रिया का लोप नहीं करना चाहिए। यदि कोई स्त्री अथवा पुरुष अपने इष्ट-मित्र की और्ध्वदैहिक क्रिया करता है तो अनाथ प्रेत का संस्कार करने से उसे कोटियज्ञ का फल प्राप्त होता है।

हे खग ;- पिता का दशगात्रादि कर्म पुत्र को करना चाहिए, किंतु यदि ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हो जाए तो अति स्नेह होने पर भी पिता उसकी दशगात्रादि क्रिया न करे। बहुत-से पुत्रों के रहने पर भी दशगात्र, सपिण्डन तथा अन्य षोडश श्राद्ध एक ही पुत्र को करना चाहिए। पैतृक संपत्ति का बँटवारा हो जाने पर भी दशगात्र, सपिण्डन और षोडश श्राद्ध एक को ही करना चाहिए, किंतु सांवत्सरिक आदि श्राद्धों को विभक्त पुत्र पृथक-पृथक करें।

इसलिए ज्येष्ठ पुत्र को एक समय भोजन, भूमि पर शयन तथा ब्रह्मचर्य धारण करके पवित्र होकर भक्ति भाव से दशगात्र और श्राद्ध विधान करने चाहिए। पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल माता-पिता की क्रिया करके पुत्र प्राप्त करता है। दशगात्र से लेकर वार्षिक श्राद्धपर्यन्त पिता की श्राद्ध क्रिया करने वाला पुत्र गया श्राद्ध का फल प्राप्त करता है।

कूप, तालाब, बगीचा, तीर्थ अथवा देवालय के प्रांगण में जाकर मध्यमयाम (मध्याह्नकाल) – में बिना मन्त्र के स्नान करना चाहिए। पवित्र होकर वृक्ष के मूल में दक्षिणाभिमुख होकर वेदी बनाकर उसे गोबर से लीपे। उस वेदी में पत्ते पर कुश से बने हुए दर्भमय ब्राह्मण को स्थापित करके पाद्यादि से उसका पूजन करें और “अतसीपुष्पसंकाशं.”(अतसीपुष्पसंकाशं पीतवासससमुच्यतम्। ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम् )  इत्यादि मन्त्रों से उसे प्रणाम करे।

इसके पश्चात उसके आगे पिण्द प्रदान करने के लिए कुश का आसन रखकर उसके ऊपर नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए पके हुए चावल अथवा जौ की पीठी (आटा) से बने हुए पिण्ड को प्रदान करना चाहिए। उशीर (खस), चन्दन और भृंगराज का पुष्प निवेदित करें। धूप-दीप, नैवेद्य, मुखवास (ताम्बूल – पान) तथा दक्षिणा समर्पित करें। तदनन्तर काकान्न, दूध और जल से परिपूर्ण पात्र तथा वर्धमान (वृद्धिक्रम से दी जाने वाली) जलांजलि  प्रदान करते हुए यह कहे कि – “अमुक नाम के प्रेत के लिए मेरे द्वारा प्रदत्त (यह पिण्डादि सामग्री) प्राप्त हो” अन्न, वस्त्र, जल, द्रव्य अथवा अन्य जो भी वस्तु ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण करके मृत प्राणी को दी जाती है, उससे उसे अनन्त फल प्राप्त होता है (अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है) इसलिए प्रथम दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण करना चाहिए।

पहले दिन विधिपूर्वक जिस अन्न का पिण्ड दिया जाता है, उसी अन्न से विधिपूर्वक नौ दिन तक पिण्डदान करना चाहिए। नौंवे दिन सभी सपिण्डीजनों को मृत प्राणी के स्वर्ग की कामना से तैलाभ्यंग करना चाहिए और घर के बाहर स्नान करके दूब एवं लाजा (लावा) लेकर स्त्रियों को आगे करके मृत प्राणी के घर जाकर उससे कहे कि “दूर्वा के समान आपके कुल की वृद्धि हो तथा लावा के समान आपका कुल विकसित हो” – ऎसा कह करके दूर्वासमन्वित लावा को उसके घर में (चारों ओर) बिखेर दे। हे खगेश्वर ! दसवें दिन मांस से पिण्डदान करना चाहिए, किंतु कलियुग में मांस से पिण्डदान शास्त्रत: निषिद्ध होने के कारण माष(उड़द) से पिण्डदान करना चाहिए। दसवें दिन क्षौरकर्म और बन्धु-बान्धवों को मुण्डन कराना चाहिए। क्रिया करने वाले पुत्र को भी पुन: मुण्डन कराना चाहिए।

दस दिन तक एक ब्राह्मण को प्रतिदिन मिष्टान्न भोजन कराना चाहिए और हाथ जोड़कर भगवान विष्णु का ध्यान करके प्रेत की मुक्ति के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए। अतसी के फूल समान कान्ति वाले, पीतवस्त्र धारण करने वाले अच्युत भगवान गोविन्द को जो प्रणाम करते हैं, उन्हें कोई भय नहीं होता। हे आदि-अन्त से रहित, शंख-चक्र और गदा धारण करने वाले, अविनाशी तथा कमल के समान नेत्र वाले देव विष्णु ! आप प्रेत को मोक्ष प्रदान करने वाले हो। इस प्रकार प्रतिदिन श्राद्ध के अन्त में यह प्रार्थना-मन्त्र पढ़ना चाहिए। तदनन्तर स्नान करके घर जाकर गोग्रास देने के उपरान्त भोजन करना चाहिए।


।। “इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “दशगात्रविधिनिरुपण” नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ”।।

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