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ॐ नमस्ते गणपतये ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे यहां पर वैदिक ज्योतिष के आधार पर कुंडली , राज योग , वर्ष पत्रिका , वार्षिक कुंडली , शनि रिपोर्ट , राशिफल , प्रश्न पूछें , आर्थिक भविष्यफल , वैवाहिक रिपोर्ट , नाम परिवर्तन पर ज्योतिषीय सुझाव , करियर रिपोर्ट , वास्तु , महामृत्‍युंजय पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , केतु ग्रह शांति पूजा , कालसर्प दोष पूजा , नवग्रह पूजा , गुरु ग्रह शांति पूजा , शुक्र ग्रह शांति पूजा , सूर्य ग्रह शांति पूजा , पितृ दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रह शांति पूजा , सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ , प्रेत बाधा निवारण पूजा , गंडमूल दोष निवारण पूजा , बुध ग्रह शांति पूजा , मंगल दोष (मांगलिक दोष) निवारण पूजा , केमद्रुम दोष निवारण पूजा , सूर्य ग्रहण दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रहण दोष निवारण पूजा , महालक्ष्मी पूजा , शुभ लाभ पूजा , गृह-कलेश शांति पूजा , चांडाल दोष निवारण पूजा , नारायण बलि पूजन , अंगारक दोष निवारण पूजा , अष्‍ट लक्ष्‍मी पूजा , कष्ट निवारण पूजा , महा विष्णु पूजन , नाग दोष निवारण पूजा , सत्यनारायण पूजा , दुर्गा सप्तशती चंडी पाठ (एक दिन) जैसी रिपोर्ट पाए और घर बैठे जाने अपना भाग्य अभी आर्डर करे

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रावण को नंदी का शाप

 
 
     हे राम! इस प्रकार रावण अपने भ्राता कुबेर को विजय कर स्वामिकार्तिक के जन्मस्थान ‘शरवण’ नामक सरकण्डों के विशाल वन में जा पहुंचा | वहाँ से आगे के पर्वतों पर चढ़कर जब वह चला तो पुष्पक की गति अवरुद्ध हो गई | वहाँ रावण सोचने लगा कि, पुष्पक क्यों नहीं चलता हैं ? इतने ही में अति करालरूप काले-पीले रंगों वाले अति लघुरूप उसे नन्दीश्वर देखी पड़े, जो बड़े ही विकट रूप मूढ़ मुड़ाए शिव की सेवा में लगे रहने वाले थे | 
 
     उन्होंने रावण के निकट जाकर निर्भीकता से कहा ‘हे दशग्रीव! यहाँ शिवजी क्रीडा कर रहे हैं | अत: तू यहाँ से चला जा | इस पर्वत पर चाहे गरुड़, नाग, यक्ष, देवता, गन्धर्व और राक्षस कोई भी हो, नहीं जा सकता |’ नंदी के इन वचनों को सुनकर रावण मारे क्रोध के जल गया, उसके नेत्र लाल हो गए | वह अपने कुण्डलों को हिलाता हुआ पुष्पक विमान से उतर पड़ा और यह कहता हुआ की यह कौन शंकर हैं ? पर्वत के नीचे आ गया | 
 
     वहाँ रावण ने देखा कि, नंदी दीप्त शूल लिए दुसरे महादेव के समान ही शंकरजी के निकट खड़े हैं | तब वानर-जैसा नन्दीश्वर का मुख देख-देख रावण अट्टहास करने लगा | यह देख नंदी बड़े कुपित हुए | उन्होंने कहा-दशानन! तूने जो मेरे वानर रूप की अवज्ञा कर अट्टहास किया हैं तो मेरे समान ही तेजस्वी वानर तेरे वंश का मूलोच्छेदन करने के लिए उत्पन्न होंगे | 
 
     वे ही तेरे इस प्रबल अहंकार और शारीरिक बल के दर्प को दूर करेंगे | यद्यपि मैं तुझे इसी क्षण मार डालता, तथापि क्या करूँ, तू तो स्वकृत दुष्कर्मों से पूर्व ही मर चुका हैं | फिर मरे को मारना ही क्या हैं ? महात्मा नंदी के यह कहते ही देवताओं ने आकाश से दुन्दुभि बजाई और पुष्प वर्षा की | परन्तु महाबली रावण ने इसकी किञ्चित् भी चिंता न की | 
 
     पर्वत के निकट जा वृषभपति रूद्र की अवहेलना करने के लिए उस पर्वत को ही उखाड देना चाहा और तत्क्षण ही अपनी दोनों भुजाएं उसके भीतर प्रवेश कर पर्वत को उठा लेना चाहा | पर्वत काँपने लगा | पर्वत के कम्प से महादेव जी के समस्त गण काँप गए और पार्वती जी भी भयभीत हो महेश्वर से चिपट गई | हे राम! फिर महादेव जी ने बिना किसी प्रयास के ही अपने पैर के अंगूठे से उस पर्वत को दबा दिया | 
 
     पर्वत के दबाते उनके नीचे रावण की विशाल भूजाएँ पीसने लगी | वह रोष से तथा भुजाओं के दबने की पीड़ा से सहसा ऐसे वेग से चिल्लाया कि उसके चीत्कार से त्रयलोक कम्पित हो गया | वज्रपात जैसा शब्द सुनाई पड़ा | देवता विचलित हो गए, समुद्र संक्षुब्ध हो गए, पर्वत काँप उठे | तब दशान के मंत्रियों ने उससे कहा-हे दशानन! अब तुम उमापति नीलकंठ महादेव को स्तुति से प्रसन्न करो | 
 
     यहाँ तुम्हारी रक्षा का अब कोई अन्य उपाय नहीं हैं | महादेव जी बड़े दयालु हैं | शरण जाते ही वह तुम पर प्रसन्न हो जाएंगे | तब दशानन ने शिवजी को प्रणाम कर सामदेव के विविध मंत्रों द्वारा उनकी स्तुति करना प्रारंभ किया और उस पर रोते-बिलकते उसे एक सहस्र वर्ष व्यतीत हो गए, तब महादेवजी रावण पर प्रसन्न हुए और पर्वत से भुजाएँ निकालने का उसे अवसर दिया | साथ ही उसी दिन से उसके उस चीत्कार के कारण उन्होंने ही उसका नाम ‘राव’ रख दिया और कहा कि अब तेरी जिधर इच्छा हो, चला जा | 
 
     उसी समय श्री महादेवजी को प्रसन्न देख रावण ने देवताओं, गंधर्वों, दानवों, राक्षसों, गुह्मकों, नागों तथा अन्य प्राणियों से अपनी अवध्यता तथा ब्रह्माजी द्वारा वर प्राप्ति की बात कहकर यह निवेदन किया कि-इतने पर भी मेरी जो शेष आयु रह गई हैं वह मेरे किसी कार्य से नष्ट न हो, इसका मुझे वर दीजिए और अपना एक शस्त्र भी दीजिए | इस पर शंकरजी ने उसे अपना चंद्रहास नामक महादीप्त खड्ग (तलवार) प्रदान किया तथा उसकी शेष आयु भी दे दी | 
 
     साथ ही यह भी आदेश दे दिया की, इस खड्ग का कभी अनादर मत करना अन्यथा यह मेरे पास चला आएगा | रावण महादेवजी को प्रणाम कर पुष्पक पर बैठ वहाँ से लौट पड़ा और पृथ्वी के सभी बलवानों और पराक्रमी क्षत्रियों को उसे दुर्जय समझ अपनी पराजय स्वीकार कर ली | 
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