Om Asttro / ॐ एस्ट्रो

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ॐ नमस्ते गणपतये ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे यहां पर वैदिक ज्योतिष के आधार पर कुंडली , राज योग , वर्ष पत्रिका , वार्षिक कुंडली , शनि रिपोर्ट , राशिफल , प्रश्न पूछें , आर्थिक भविष्यफल , वैवाहिक रिपोर्ट , नाम परिवर्तन पर ज्योतिषीय सुझाव , करियर रिपोर्ट , वास्तु , महामृत्‍युंजय पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , केतु ग्रह शांति पूजा , कालसर्प दोष पूजा , नवग्रह पूजा , गुरु ग्रह शांति पूजा , शुक्र ग्रह शांति पूजा , सूर्य ग्रह शांति पूजा , पितृ दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रह शांति पूजा , सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ , प्रेत बाधा निवारण पूजा , गंडमूल दोष निवारण पूजा , बुध ग्रह शांति पूजा , मंगल दोष (मांगलिक दोष) निवारण पूजा , केमद्रुम दोष निवारण पूजा , सूर्य ग्रहण दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रहण दोष निवारण पूजा , महालक्ष्मी पूजा , शुभ लाभ पूजा , गृह-कलेश शांति पूजा , चांडाल दोष निवारण पूजा , नारायण बलि पूजन , अंगारक दोष निवारण पूजा , अष्‍ट लक्ष्‍मी पूजा , कष्ट निवारण पूजा , महा विष्णु पूजन , नाग दोष निवारण पूजा , सत्यनारायण पूजा , दुर्गा सप्तशती चंडी पाठ (एक दिन) जैसी रिपोर्ट पाए और घर बैठे जाने अपना भाग्य अभी आर्डर करे

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दधीचि-क्षुव विवाद 

 
 
     सूत जी कहते हैं-हे महर्षियों! ब्रह्माजी के द्वारा कही हुई कथा को सुनकर नारद जी आश्चर्यचकित हो गए तथा उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा कि भगवान विष्णु शिवजी को छोड़कर अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गए ? क्या वे अद्भुत पराक्रम वाले भगवान शिव को नहीं जानते थे ? क्यों श्रीहरि ने रूद्रगणों के साथ युद्ध किया ? कृपया कर मेरे अंदर उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी शंकाओं का समाधान कीजिए | 
 
     ब्रह्माजी ने नारद जी के प्रश्नों के उत्तर देते हुए कहा-हे मुनिश्रेष्ठ नारद! पूर्व काल में राजा क्षुव की सहायता करने वाले श्रीहरी को दधीचि मुनि ने शाप दे दिया था | इसलिए वे भूल गए और दक्ष के यज्ञ में चले गए | प्राचीन काल में दधीचि मुनि महातेजस्वी राजा क्षुव के मित्र थे परन्तु उन दोनों के बीच बहुत विवाद खड़ा हो गया | विवाद का कारण मुनि दधीचि का चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताना था परन्तु राजा क्षुव, जो कि धन वैभव के अभिमान में डूबे हुए थे, इस बात से पूर्णत: असहमत थे | क्षुव सभी वर्णों में राजा को ही श्रेष्ठ मानते थे | राजा को सर्वश्रेष्ठ और सर्ववेदमय माना जाता था | यह श्रुति भी कहती हैं | इसलिए ब्राह्मण से राजा ज्यादा श्रेष्ठ हैं | हे दधीचि! आप मेरे लिए आदरणीय हैं | राजा क्षुव के कथन को सुनकर दधीचि को क्रोध आया | उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और क्षुव के सिर पर मुक्के का प्रहार कर दिया | दधीचि के इस व्यवहार से मद में चूर क्षुव को और अधिक क्रोध आ गया | उन्होंने वज्र से दधीचि पर प्रहार कर दिया | वज्र से घायल हुए दधीचि मुनि ने पृथ्वी पर गिरते हुए योगी शुक्राचार्य का स्मरण किया | शुक्राचार्य ने तुरंत आकर दधीचि मुनि के शरीर को पूर्ववत कर दिया | शुक्राचार्य ने दधीचि से कहा कि मैं तुम्हे महामृत्युंजय का मंत्र प्रदान करता हूं | 
 
     ‘त्रयम्बकं यजामहे’ अर्थात हम तीनों लोकों के पिता भगवान शिव, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों मण्डलों के पिता हैं, सत्व, रज और तम आदि तीनों गुणों के महेश्वर हैं, जो आत्म तत्व, विद्या तत्व और शिव तत्व, पृथ्वी, जल व तेज सभी के स्रोत हैं | जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों आधारभूत देवताओं के भी ईश्वर महादेव हैं, उनकी आराधना करते हैं | ‘सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्’ अर्थात जिस प्रकार फूलों में खुशबू होती हैं, उसी प्रकार भगवान शिव भूतों में, गुणों में, सभी कार्यों में इन्द्रियों में, अन्य देवताओं में और अपने प्रिय गणों में क्षार भूतआत्मा के रूप में समाए हैं | उनकी सुगंध से ही सबकी ख्याति एवं प्रसिद्धि हैं | ‘पुष्टिवर्धनम्’ अर्थात वे भगवान शिव ही प्रकृति का पोषण करते हैं | वे ही ब्रह्मा, विष्णु, मुनियों एवं सभी देवताओं का पोषण करते हैं | ‘उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात’ अर्थात जिस प्रकार खरबूजा पाक जाने पर लता से टूटकर अलग हो जाता हैं उसी प्रकार मैं भी मृत्युरुपी बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्ति करूं | हे रुद्रदेव! आपका स्वरूप अमृत के समान हैं | जो पुण्यकर्म, तपस्या, स्वाध्याय, योग और ध्यान से उनकी आराधना करता हैं, उसे नया जीवन प्राप्त होता हैं | भगवान शिव अपने भक्त को मृत्यु के बन्धनों से मुक्त कर देते हैं और उसे मोक्ष प्रदान करते हैं | जैसे उर्वारुक अर्थात ककड़ी को उसकी बेल अपने बंधन में बांधे रखती हैं और पाक जाने पर स्वयं ही उसे बंधन मुक्त कर देती हैं | यह महामृत्युंजय मंत्र संजीवनी मंत्र हैं | तुम नियमपूर्वक भगवान शिव का स्मरण करके इस मंत्र का जाप करो | इस मंत्र से अभिमन्त्रित जल को पियो | इस मंत्र का जाप करने से मृत्यु का भय नहीं रहता | इसके विधिवत पूजन करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं | वे सभी कार्यों की सिद्धि करते हैं तथा सभी बन्धनों से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करते हैं | 
 
     ब्रह्माजी बोले-नारद! दधीचि मुनि को इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य अपने निवास पर चले गए | उनकी बातों का दधीचि मुनि पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे भगवान शिव का स्मरण कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने वन में चले गए | वन में उन्होंने प्रेमपूर्वक भगवान स्शिव का चिंतन करते हुए उनकी तपस्या आरम्भ कर दी | दीर्घकाल तक वे महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते रहे | उनकी इस नि:स्वार्थ भक्ति से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गए | दधीचि ने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया | उन्होंने महादेव जी की बहुत स्तुति की | 
 
     शिव ने कहा-मुनिश्रेष्ठ दधीचि! मैं तुम्हारी इस उत्तम आराधना से बहुत प्रसन्न हुआ हूं | तुम वर मांगों | मैं तुम्हे मनोवांछित वस्तु प्रदान करूंगा | यह सुनकर दधीचि हाथ जोड़े नतमस्तक होकर कहने लगे-हे देवाधिदेव! करुणानिधान! महादेव जी! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे तीन वर प्रदान करें | पहला यह कि मेरी अस्थियां वज्र के समान हो जाएं | दूसरा-कोई मेरा वध न कर सके अर्थात मैं हमेशा अवध्य रहूं और तीसरा यह कि मैं हमेशा अदीन रहूं | कभी दीन न होऊं | शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहकर तीनों वर दधीचि को प्रदान कर दिए | तीनों मनचाहे वरदान मिल जाने पर दधीचि मुनि बहुत प्रसन्न थे | वे आनंदमग्न होकर राजा क्षुव के स्थान की और चल दिए | वहां पहुंचकर दधीचि ने क्षुव के सिर पर लात मारी | क्षुव विष्णुजी का परम भक्त था | राजा होने के कारण वह भी अहंकारी था | उसने क्रोधित हो तुरंत दधीचि पर वज्र से प्रहार कर दिया परन्तु क्षुव के प्रहार से दधीचि मुनि का बाल भी बांका नहीं हुआ | यह सब महादेव जी के वरदान से ही हुआ था | यह देखकर क्षुव को बड़ा आश्चर्य हुआ | तब उन्होंने वन में जाकर इंद्र के भाई मुकुंद की आराधना शुरू कर दी | तब विष्णुजी ने प्रसन्न होकर क्षुव को दिव्य दृष्टि प्रदान की | क्षुव ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी भक्तिभाव से स्तुति की | 
 
     तत्पश्चात क्षुव बोले-भगवन, मुनिश्रेष्ठ दधीचि पहले मेरे मित्र थे परन्तु बाद में हम दोनों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया | दधीचि ने परम पूजनीय भगवान शिव की तपस्या महामृत्युंजय मंत्र से कर उन्हें प्रसन्न किया तथा अवध्य रहने का वरदान प्राप्त कर लिया | तब उन्होंने मेरी राजसभा में मेरे सभी समस्त दरबारियों के बीच मेरा घोर अपमान किया | उन्होंने सबके सामने मेरे मस्तक पर अपने पैरों से आघात किया | साथ ही उन्होंने कहा कि मैं किसी से नहीं डरता | भगवन! मुनि दधीचि को बहुत घमंड हो गया हैं | 
 
     ब्रह्माजी बोले-नारद! जब श्रीहरि को इस बात का ज्ञान हुआ कि दधीचि मुनि को महादेव जी द्वारा अवध्य होने का आशीर्वाद प्राप्त हैं, तो वे कहने लगे कि क्षुव महादेव जी के भक्तों को कभी भी किसी प्रकार का भी भय नहीं होता हैं | यदि मैं इस विषय में कुछ करूं तो दधीचि को बुरा लगेगा और वे शाप भी दे सकते हैं | उन्ही दधीचि के शाप से दक्ष यज्ञ में मेरी शिवजी से पराजय होगी | इसलिए मैं इस सम्बन्ध में कुछ नहीं करना चाहता परन्तु ऐसा कुछ जरुर करूंगा, जिससे आपको विजय प्राप्त हो | भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर राजा चुप हो गए | 

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