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ॐ नमस्ते गणपतये ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे यहां पर वैदिक ज्योतिष के आधार पर कुंडली , राज योग , वर्ष पत्रिका , वार्षिक कुंडली , शनि रिपोर्ट , राशिफल , प्रश्न पूछें , आर्थिक भविष्यफल , वैवाहिक रिपोर्ट , नाम परिवर्तन पर ज्योतिषीय सुझाव , करियर रिपोर्ट , वास्तु , महामृत्‍युंजय पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , शनि ग्रह शांति पूजा , केतु ग्रह शांति पूजा , कालसर्प दोष पूजा , नवग्रह पूजा , गुरु ग्रह शांति पूजा , शुक्र ग्रह शांति पूजा , सूर्य ग्रह शांति पूजा , पितृ दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रह शांति पूजा , सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ , प्रेत बाधा निवारण पूजा , गंडमूल दोष निवारण पूजा , बुध ग्रह शांति पूजा , मंगल दोष (मांगलिक दोष) निवारण पूजा , केमद्रुम दोष निवारण पूजा , सूर्य ग्रहण दोष निवारण पूजा , चंद्र ग्रहण दोष निवारण पूजा , महालक्ष्मी पूजा , शुभ लाभ पूजा , गृह-कलेश शांति पूजा , चांडाल दोष निवारण पूजा , नारायण बलि पूजन , अंगारक दोष निवारण पूजा , अष्‍ट लक्ष्‍मी पूजा , कष्ट निवारण पूजा , महा विष्णु पूजन , नाग दोष निवारण पूजा , सत्यनारायण पूजा , दुर्गा सप्तशती चंडी पाठ (एक दिन) जैसी रिपोर्ट पाए और घर बैठे जाने अपना भाग्य अभी आर्डर करे

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त्रिनेत्री नामक पच्चीसवीं पुतली की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के सुख दुख का पता लगाने के लिए कभी-कभी वेश बदलकर घूमा करते थे तथा खुद सारी समस्या का पता लगाकर निदान करते थे।

उनके राज्य में एक दरिद्र ब्राह्मण और भाट रहते थे। वे दोनों अपना कष्ट अपने तक ही सीमित रखते हुए जीवन-यापन कर रहे थे तथा कभी किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं रखते थे। वे अपनी गरीबी को अपना प्रारब्ध समझकर सदा खुश रहते थे तथा सीमित आय से संतुष्ट थे।

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, मगर जब भाट की बेटी विवाह योग्य हुई तो भाट की पत्नी को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी। उसने अपने पति से कहा कि वह पुश्तैनी पेशे से जो कमाकर लाता है उससे दैनिक खर्च तो आराम से चल जाता है, मगर बेटी के विवाह के लिए कुछ भी नहीं बच पाता है। बेटी के विवाह में बहुत खर्च आता है, अत: उसे कोई और यत्न करना होगा।

भाट यह सुनकर हँस पड़ा और कहने लगा कि बेटी उसे भगवान की इच्छा से प्राप्त हुई है, इसलिए उसके विवाह के लिए भगवान कोई रास्ता निकाल ही देंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो हर दम्पत्ति को केवल पुत्र की ही प्राप्ति होती या कोई दम्पति संतानहीन न रहते। सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है। दिन बीतते गए, पर भाट को बेटी के विवाह में खर्च लायक धन नहीं मिल सका। उसकी पत्नी अब दुखी रहने लगी। भाट से उसका दुख नहीं देखा गया तो वह एक दिन धन इकट्ठा करने की नीयत से निकल पड़ा। कई राज्यों का भ्रमण कर उसने सैकड़ों राज्याधिकारियों तथा बड़े-बड़े सेठों को हँसाकर उनका मनोरंजन किया तथा उनकी प्रशंसा में गीत गाए। खुश होकर उन लोगों ने जो पुरस्कार दिए उससे बेटी के विवाह लायक धन हो गया। जब वह सारा धन लेकर लौट रहा था तो रास्ते में न जाने चोरों को कैसे उसके धन की भनक लग गई। उन्होंने सारा धन लूट लिया। अब तो भाट का विश्वास भगवान पर और चाहेंगे उसके पास बेटी के ब्याह के लिए धन नहीं होगा। वह जब लौटकर घर आया तो उसकी पत्नी को आशा थी कि वह ब्याह के लिए उचित धन लाया होगा।

भाट की पत्नी को बताया कि उसके बार-बार कहने पर वह विवाह के लिए धन अर्जित करने को कई प्रदेश गया और तरह-तरह को लोगों से मिला। लोगों से पर्याप्त धन भी एकत्र कर लाया पर भगवान को उस धन से उसकी बेटी का विवाह होना मंजूर नहीं था। रास्ते में सारा धन लुटेरों ने लूट लिया और किसी तरह प्राण बचाकर वह वापस लौट आया है। भाट की पत्नी गहरी चिन्ता में डूब गई। उसने पति से पूछा कि अब बेटी का ब्याह कैसे होगा। भाट ने फिर अपनी बात दुहराई कि जिसने बेटी दी है वही ईश्वर उसके विवाह की व्यवस्था भी कर देगा। इस पर उसकी पत्नी निराशा भरी खीझ के साथ बोली कि ईश्वर लगता है महाराजा विक्रम को विवाह की व्यवस्था करने भेजेंगे। जब यह वार्तालाप हो रहा था तभी महाराज उसके घर के पास से गुज़र रहे थे। उन्हें भाट की पत्नी की टिप्पणी पर हँसी आ गई।

दूसरी तरफ ब्राह्मण अपनी आजीविका के लिए पुश्तैनी पेशा अपनाकर जैसे-तैसे गुज़र-बसर कर रहा था। वह पूजा-पाठ करवाकर जो कुछ भी दक्षिणा के रूप में प्राप्त करता उसी से आनन्दपूर्वक निर्वाह कर रहा था। ब्राह्मणी को भी तब तक सब कुछ सामान्य दिख पड़ा जब तक कि उनकी बेटी विवाह योग्य नहीं हुई। बेटी के विवाह की चिन्ता जब सताने लगी तो उसने ब्राह्मण को कुछ धन जमा करने को कहा। मगर ब्राह्मण चाहकर भी नहीं कर पाया। पत्नी के बार-बार याद दिलाने पर उसने अपने यजमानों को घुमा फिरा कर कहा भी, मगर किसी यजमान ने उसकी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया। एक दिन ब्राह्मणी तंग आकर बोली कि विवाह खर्च महाराजा विक्रमादित्य से मांगकर देखो, क्योंकि अब और कोई विकल्प नहीं है। कन्यादान तो करना ही है। ब्राह्मण ने कहा कि वह महाराज के पास ज़रुर जाएगा। महाराज धन दान करेंगे तो सारी व्यवस्था हो जाएगी। उसकी भी पत्नी के साथ पूरी बातचीत विक्रम ने सुन ली, क्योंकि उसी समय वे उसके घर के पास गुज़र रहे थे।

सुबह में उन्होंने सिपाहियों को भेजा और भाट तथा ब्राह्मण दोनों को दरबार में बुलवाया। विक्रमादित्य ने अपने हाथों से भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान की। फिर ब्राह्मण को राजकोष से कुछ सौ मुद्राएँ दिलवा दी। वे दोनों अति प्रसन्न हो वहाँ से विदा हो गए। जब वे चले गए तो एक दरबारी ने महाराज से कुछ कहने की अनुमति मांगी। उसने जिज्ञासा की कि भाट और ब्राह्मण दोनों कन्या दान के लिए धन चाहते थे तो महाराज ने पक्षपात क्यों किया। भाट को दस लाख और ब्राह्मण को सिर्फ कुछ सौ स्वर्ण मुद्राएँ क्यों दी। विक्रम ने जवाब दिया कि भाट धन के लिए उनके आसरे पर नहीं बैठा था। वह ईश्वर से आस लगाये बैठा था। ईश्वर लोगों को कुछ भी दे सकते हैं, इसलिए उन्होंने उसे ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर अप्रत्याशित दान दिया, जबकि ब्राह्मण कुलीन वंश का होते हुए भी ईश्वर में पूरी आस्था नहीं रखता था। वह उनसे सहायता की अपेक्षा रखता था। राजा भी आखिर मनुष्य है, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता। उन्होंने उसे उतना ही धन दिया जितने में विवाह अच्छी तरह संपन्न हो जाए। राजा का ऐसा गूढ़ उत्तर सुनकर दरबारी ने मन ही मन उनकी प्रशंसा की तथा चुप हो गया।

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