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“देश, काल, पात्र और दान का विचार”

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ऋषियों ने कहा :– समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूत जी हमसे देश, काल और दान का वर्णन करें ।

“देश का वर्णन”

सूत जी बोले :- अपने घर में किया देवयज्ञ शुद्ध गृह के फल को देने वाला है। गोशाला का स्थान घर में किए गए देवयज्ञ से दस गुना जबकि जलाशय का तट गोशाला से दस गुना है। एवं जहां तुलसी, बेल और पीपल वृक्ष का मूल हो, वह स्थान जलाशय तट से भी दस गुना महत्व देने वाला है। देवालय उससे भी अधिक महत्व रखता है। देवालय से दस गुना महत्व रखता है तीर्थ भूमि का तट। उससे भी श्रेष्ठ है नदी का किनारा तथा उसका दस गुना उत्कृष्ट है तीर्थ नदी का तट। इससे भी अधिक महत्व रखने वाला है सप्तगंगा का तट, जिसमें गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिंधु, सरयू और रेवा नदियां आती हैं। इससे भी दस गुना अधिक फल समुद्र का तट और उससे भी दस गुना अधिक फल पर्वत चोटी पर पूजा करने से होता है और सबसे अधिक महत्व का स्थान वह होता है, जहां मन रम जाए ।

काल का वर्णन”

सतयुग में यज्ञ, दान आदि से संपूर्ण फलों की प्राप्ति होती है। त्रेता में तिहाई, द्वापर में आधा, कलियुग में इससे भी कम फल प्राप्त होता है। परंतु शुद्ध हृदय से किया गया पूजन फल देने वाला होता है। इससे दस गुना फल सूर्य-संक्रांति के दिन, उससे दस गुना अधिक फल तुला और मेष की संक्रांति में तथा चंद्र ग्रहण में उससे भी दस गुना फल मिलता है। सूर्य ग्रहण में उससे भी दस गुना अधिक फल प्राप्त होता है। महापुरुषों के साथ में वह काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन है, ऐसा ज्ञानी पुरुष मानते हैं।

“पात्र वर्णन”

तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ योगी पूजा के पात्र होते हैं। क्योंकि ये पापों के नाश के कारण होते हैं। जिस ब्राह्मण ने चौबीस लाख गायत्री का जाप कर लिया हो वह भी पूजा का पात्र है। वह संपूर्ण काल और भोग का दाता है। गायत्री के जाप से शुद्ध हुआ ब्राह्मण पर पवित्र है। इसलिए दान, जाप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिए वही शुद्ध पात्र है।

स्त्री या पुरुष जो भी भूखा हो वही अन्नदान का पात्र है। जिसे जिस वस्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना मांगे ही दे दी जाए, तो दाता को उस दान का पूरा फल प्राप्त होता है।

याचना करने के बाद दिया गया दान आधा ही फल देता है। सेवक को दिया दान चौथाई फल देने वाला होता है। दीन ब्राह्मण को दिए गए धन का दान दाता को इस भूतल पर दस वर्षों तक भोग प्रदान करने वाला है। वेदवेत्ता को दान देने पर वह स्वर्गलोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षों तक दिव्य भोग देने वाला है। गुरुदक्षिणा में प्राप्त धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है। इसका दान संपूर्ण फल देने वाला है। क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापार से आया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया धन उत्तम द्रव्य है।

“दान का वर्णन”

गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी, नमक, कोहड़ा और कन्या नामक बारह वस्तुओं का दान करना चाहिए। गोदान से सभी पापों का निवारण होता है और पुण्यकर्मों की पुष्टि होती है। भूमि का दान परलोक में आश्रय देने वाला होता है। तिल का दान बल देने वाला तथा मृत्यु का निवारक होता है । सुवर्ण का दान वीर्यदायक और घी का दान पुष्टिकारक होता है। वस्त्र का दान आयु की वृद्धि करता है । धान्य का दान करने से अन्न और धन की समृद्धि होती है। गुड़ का दान मधुर भोजन की प्राप्ति कराता है। चांदी के दान से वीर्य की वृद्धि होती है। लवण के दान से षड्स भोजन की प्राप्ति होती है। कोहड़ा या कूष्माण्ड के दान को पुष्टिदायक माना जाता है। कन्या का दान आजीवन भोग देने वाला होता है।

जिन वस्तुओं से श्रवण आदि इंद्रियों की तृप्ति होती है, उनका सदा दान करें। वेद और शास्त्र को गुरुमुख से ग्रहण करके कर्मों का फल अवश्य मिलता है, इसे ही उच्चकोटि की आस्तिकता कहते हैं। भाई-बंधु अथवा राजा के भय से जो आस्तिकता होती है, वह निम्न श्रेणी की होती है। जिस मनुष्य के पास धन का अभाव है, वह वाणी और कर्म द्वारा ही पूजन करे। तीर्थयात्रा और व्रत को शारीरिक पूजन माना जाता है। तपस्या और दान मनुष्य को सदा करने चाहिए। देवताओं की तृप्ति के लिए जो कुछ दान किया जाता है, वह सब प्रकार के भोग प्रदान करने वाला है। इससे इस लोक और परलोक में उत्तम जन्म और सदा सुलभ होने वाला भोग प्राप्त होता है। ईश्वर को सबकुछ समर्पित करने एवं बुद्धि से यज्ञ व दान करने से ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है।

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|| शिव पुराण ||

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