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श्री विष्णु जी के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए ।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ।। श्लोक ९ / अध्याय ०३ / श्रीमद्भगवतगीता ।।

यज्ञ अर्थात्- एकमात्र यज्ञ या विष्णु के लिए किया गया ; कर्मणः – कर्म की अपेक्षा ; अन्यत्र – अन्यथा ; लोकः – संसार ; अयम् – यह ; कर्मबंधनः – कर्म के कारण बन्धन ; तत् – उस ; अर्थम् – के लिए ; कर्म – कर्म ; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र ; मुक्तसङ्ग – सङ्ग (फलाकांक्षा) से मुक्त ; समाचर – भलीभाँति आचरण करो ।

श्री विष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए , अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत में बंधन उत्पन्न होता है । अतः हे कुंती पुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नित्य कर्म करो । इस तरह तुम बंधन से सदा मुक्त रहोगे ।

तात्पर्य : चूँकि मनुष्य को शरीर के निर्वाह के लिए भी कर्म करना होता है , अतः विशिष्ट सामाजिक स्थिति तथा गुण को ध्यान में रखकर कर नियत कर्म इस तरह बनाए गए हैं कि उस उद्देश्य की पूर्ति हो सके । यज्ञ का अर्थ भगवान विष्णु है । सारे यज्ञ भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए है । वेदों का आदेश है – यज्ञो वै विष्णुः । दूसरे शब्दों में , चाहें कोई निर्दिष्ट यज्ञ सम्पन्न करे या प्रत्यक्ष रूप से भगवान विष्णु की सेवा करे , दोनो से एक ही प्रयोजन सिद्ध होता है , अतः जैसा कि इस श्लोक में संस्तुत किया गया है , कृष्णभावनामृत यज्ञ ही है । वर्णाश्रम – धर्म का भी उद्देश्य भगवान विष्णु को प्रसन्न करना है ।

वर्णाश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान् । विष्णुराराध्यते (विष्णु पुराण ३.८.८ ) ।

अतः भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए कर्म करना चाहिए । इस जगत में किया जाने वाला अन्य कोई कर्म बन्धन का कारण होगा , क्योकि अच्छे तथा बुरे कर्मो के फल होते है और कोई भी फल कर्म करने वाले को बांध लेता है । अतः कृष्ण (विष्णु) को प्रसन्न करने के लिए कृष्णभावनाभावित होना होगा और जब कोई ऐसा कर्म करता है तो वह मुक्त दशा को प्राप्त रहता है । यही महान कर्म कौशल है और प्रारम्भ में इस विधि में अत्यन्त कुशल मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है । अतः भगवद्भक्त के निर्देशन में या साक्षात् भगवान आदेश के अंतर्गत (जिनके अधीन अर्जुन को कर्म करने का अवसर मिला था) मनुष्य को परिश्रम पूर्वक कर्म करना चाहिए । इंद्रिय तृप्ति के लिए कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए , अपितु हर कार्य कृष्ण की प्रसन्नता (तुष्टि) के लिए होना चाहिए । इस विधि से ना केवल कर्म के बंधन से बचा जा सकता है , अपितु इससे मनुष्य को क्रमशः भगवान की वह प्रेमा भक्ति प्राप्त हो सकेगी , जो भगवत धाम को ले जाने वाली है ।

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